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________________ १०८] जैन दर्शन में प्रमाण भीमासा अनेकान्तवाद में एक प्रकार से मनुष्य की दृष्टि को विस्तृत कर दिया है। किन्तु व्यवहार में हमको निश्चयता के आधार पर ही चलना पड़ता है। यदि हम पैर बढ़ाने से पूर्व पृथ्वी की दृढ़ता के "स्यादस्ति स्यान्नास्ति' के फेर में पड़ जाय तो चलना ही कठिन हो जाएगा २५॥" (समीक्षा).. लेखक ने सही लिखा है। अनिश्चय-दशा में वैसा ही बनता है। किन्तु विद्वान् लेखक को यह आशंका स्यावाद को संशयवाद समझने के कारण हुई है। इसलिए स्यावाद का सही रूप जानने के साथसाथ यह अपने आप मिट जाती है-"शायद घड़ा है, शायद घड़ा नहीं है"इससे दृष्टि का विस्तार नहीं होता प्रत्युत जानने वाला कुछ जान ही नही पाता। दृष्टि का विस्तार तब होता है, जब हम अनन्त दृष्टिबिन्दु-ग्राह्य सत्य को एकदृष्टिग्राह्य ही न मानें। सत्य की एक रेखा को भी हम निश्चयपूर्वक न माप सकें, यह दृष्टि का विस्तार नहीं, उसकी बुराई है। डा. सर् राधाकृष्णन ने स्याद्वाद को अर्धसत्य बताते हुए लिखा हैस्याद्वाद हमें अर्ध सत्यों के पास लाकर पटक देता है। निश्चित अनिश्चित अर्धसत्यों का योग पूर्ण सत्य नही हो सकता २६५ | (समीक्षा). इस पर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि स्यादवाद पूर्णसत्य ५ की देश काल की परिधि से मिथ्यारूप बनने से बचाने वाला है। सत् की अनन्त पर्यायें हैं, वे अनन्तसत्य हैं। वे विभक्त नहीं होती, इसलिए सत् अनन्त सत्यो का योग नहीं होता, किन्तु उन (अनन्त सत्यो) की विरोधात्मक सत्ता को मिटाने वाला होता है। दूसरी बात अनिश्चित सत्य स्यावाद को छूते ही नही। स्यावाद प्रमाण की कोटि में है। अनिश्चय अप्रमाण है। यह सही है पूर्ण सत्य शब्द द्वारा नहीं कहा जा सकता, इसीलिए "स्यात् को संकेत बनाना पड़ा। स्यावाद निरुपचरित अखण्ड सत्य को कहने का दावा नहीं करता। वह हमें सापेक्ष सत्य की दिशा में ले जाता है। ...राहुलजी स्यावाद को संजय के विक्षेपवाद का अनुकरण बताते हुए लिखते हैं-"आधुनिक जैन दर्शन का आधार म्यादवाद है, जो मालूम होता है, संजय वेलहिपुत्त के चार अंग वाले अनेकान्तवाद को लेकर उसे सात अंग वाला किया गया है, संजय ने तत्वों (परलोक, देवता) के बारे में कुछ - - - - - - -
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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