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________________ १७] जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा सत् है और पर रूप की दृष्टि से असत्। दो निश्चित दृष्टि-विन्दुओं के आधार पर वस्तु-तत्व का प्रतिपादन करने वाला वाक्य संशयरूप हो ही नही सकता। स्यावाद को अपेक्षावाद या कथंचिद्वाद भी कहा जा सकता है। भगवान महावीर ने स्यावाद की पद्धति से अनेक प्रश्नी का समाधान किया है, जिसे आगम युग का अनेकान्तवाद या स्यावाद कहा जाता है। दार्शनिक युग में उसी का विस्तार हुआ, किन्तु उसका मूल रूप नहीं बदला। परिव्राजक स्कन्दक के प्रश्न के उत्तर में भगवान महावीर ने बतायाएक जीव द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, काल दृष्टि से अनन्त है, भाव दृष्टि से अनन्त है । इसमें द्रव्य-दृष्टि के द्वारा जीव की स्वतन्त्र सत्ता का निर्देश किया गया है। योजना करते-करते जीव अत्यन्त बनते हैं, किन्तु अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता की दृष्टि से जीव एक-एक हैं-सान्त हैं। दूसरी वात-अनन्त गुणों के समुदय से एक गुणी बनता है। गुणों से गुणी अभिन्न होता है। इसलिए अनन्त गुण होने पर भी गुणी अनन्त नही होता, एक या सान्त होता है। जीव असंख्य प्रदेश वाला है या आकाश के असंख्य प्रदेशो में अवगाह पाता है, इसलिए क्षेत्र-दृष्टि से भी वह अनन्त नहीं है, सर्वत्र व्याप्त नहीं है । काल-दृष्टि से अनन्त है। वह सदा था, है और रहेगा। ज्ञान, दर्शन और अगुरुलघु पर्यायों की दृष्टि से अनन्त हैं। भगवान् महावीर की उत्तर-पद्धति मे ये चार दृष्टियां मिलती है, वैसे ही अर्पित-अनर्पित दृष्टि या व्याख्या पद्धति और मिलती है, जिसके द्वारा स्यादवाद विरोध मिटाने में समर्थ होता है । जमाली को उत्तर देते हुए भगवान् ने कहा"जीव शाश्वत है वह कभी भी नही था, नही है और नहीं होगा-ऐसा नहीं होता।" वह था, है और होगा, इसलिए वह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय अव्यय, अवस्थित है। जीव अशाश्वत है-वह नरयिक होकर तिर्यश्च हो
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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