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________________ जैन दर्शन में प्रमाण मीमांसा [९७ (३) अनेक गुणों के आश्रयभूत अर्थ अनेक होगे,, यह न हो तो एक अनेक गुणों का आश्रय कैसे बने ? - (४) अनेक सम्बन्धियों का एक के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। . (५) अनेक गुणो के उपकार अनेक होगे-एक नहीं हो सकता। .. । (६) गुणी का क्षेत्र–प्रत्येक भाग प्रतिगुण के लिए मिन्न होना चाहिए नहीं तो दूसरे गुणी के गुणों का भी इस गुणी-देश से मेद नहीं हो सकेगा। -. (७) संसर्ग प्रतिसंसर्गी का भिन्न होगा। (८) प्रत्येक विषय के शब्द पृथक् होंगे। सब गुणों को एक शब्द बता सके वो सव अर्थ एक शब्द के वाच्य बन जाएगे और दूसरे शब्दों का कोई अर्थ नहीं होगा।.. स्यादवाद के बारे में जैन-दृष्टि (भ्रान्त दृष्टिकोण और उसकी समीक्षा) _ 'मूलं नास्ति कुंतः शाखा-कवि ने इसे असम्भव बताया है। म्यादवाद की जैन-व्याख्या पढ़ने के बाद आप कुछ जैनेतर विद्वानों की व्याख्या पढ़ें, आपको मालूम होगा कि मूल के बिना मी शाखा होती है। स्यात्' शब्द तिइन्त प्रति रुपक अव्यय है। इसके प्रशसा, अस्तित्व, विवाद, विचारणा, अनेकान्त, संशय, प्रश्न आदि अनेक अर्थ होते हैं। जैनदर्शन में इसका प्रयोग अनेकान्त के अर्थ में भी होता है। स्यादवाद अर्थात्अनेकान्तात्मक वाक्य स्यावाद की नीव है अपेक्षा । अपेक्षा वहाँ होती है, जहाँ वास्तविक एकता और ऊपर से विरोध दीखे। विरोध वहाँ होता है, जहाँ निश्चय होता है। दोनो संशयशील हो, उस दशा में विरोध का क्या रूप बने ? स्थावाद का उद्गम अनेकान्त वस्तु है। तत्स्वरूप वस्तु के यथार्थ ग्रहण के लिए अनेकान्त-दृष्टि है। स्यावाद उस दृष्टि को वाणी द्वारा व्यक्त करने की पद्धति है। वह निमित्तमेद या अपेक्षाभेद से निश्चित विरोधिधर्मयुगलों का विरोध मिटाने वाला है। जो वस्तु सत् है, वही असत् भी है, किन्तु जिस रूप से सतु है, उसी रूप से असत् नहीं है। स्वरूप की दृष्टि से
SR No.010217
Book TitleJain Darshan me Praman Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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