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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा t १०३ आत्म-दर्शन में बाधा डालता है और चारित्र मोह श्रात्म - उपलब्धि में । श्रात्मसाक्षात्कार के लिये संयम किया जाए, तप तपा जाए । संयम् से मोह का प्रवेश रोका जा सकता है, और तपसे संचित मोह का व्यूह तोड़ा जा सकता 1 कुव्वत्र नवं नत्थि, कम्मं नाम वियाणइ | सूत्र १/१५/७ भव कोडि संचियं कम्मं, तवसा निज्ज रिज्जई । उत्त० | ३०,६ श्रात्मा ऋपियो ने कहा — आत्मा तप और ब्रह्मचर्य द्वारा लभ्य है :सत्येन लभ्यस्तपसा ह्ये प सम्यग् ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं नित्यम् । पश्यन्ति यतयः क्षीणदोपाः ॥ ऋग्वेद का एक ऋपि आत्म-ज्ञान की तीव्र जिज्ञासा से कहता - "मैं नहीं जानता — मैं कौन हूँ अथवा कैसा हॅू ६५ - वैदिक संस्कृति का जबतक श्रमण संस्कृति से सम्पर्क नहीं हुआ, तबतक उसमें श्राश्रम दो ही थे—– ब्रह्मचर्य और गृहस्थ । सामाजिक या राष्ट्रीय जीवन की सुख-समृद्धि के लिए इतना ही पर्याप्त माना जाता था । जव क्षत्रिय राजाओ से ब्राह्मण ऋपियो को आत्मा और पुनर्जन्म का बोधवीज मिला, तबसे आश्रम - परम्परा का विकास हुआ, वे क्रमशः तीन और चार वने । वेद-संहिता और ब्राह्मणों में संन्यास आश्रम आवश्यक कही नहीं कहा गया है, उल्टा जैमिनि ने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गृहस्थाश्रम में रहने से ही मोक्ष मिलता है ६ ६ । उनका यह कथन कुछ निराधार भी नहीं है। क्योंकि कर्मकाण्ड के इस प्राचीन मार्ग को गौण मानने का आरम्भ उपनिपदो में ही पहले-पहल देखा जाता है ६ ७ 1 श्रमण परम्परा में क्षत्रियो का प्राधान्य रहा है, और वैदिक परम्परा में ब्राह्मणो का । उपनिषदो में अनेक ऐसे उल्लेख हैं, जिससे पता चलता है कि ब्राह्मण ऋषि-मुनियो ने क्षत्रिय राजाओ से आत्म-विद्या सीखी ।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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