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________________ १०२] जैन दर्शन में आचार मीमांसा अनुगामी मन्द-क्रम है । साध्य का स्वरूप निष्कर्म या सर्व-कर्म-निवृत्ति है। इस दृष्टि से प्रवृत्ति का संन्यास प्रवृत्ति के शोधन की अपेक्षा साध्य के अधिकनिकट है। जैन दर्शन के अनुसार जीवन प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय है, यह सिद्धान्त-पक्ष है। क्रियात्मक पक्ष यह है-प्रवृत्ति के असत् अंश को छोड़ना, सत्-अंश का साधन के रूप में अवलम्बन लेना तथा क्षमता और वैराग्य के अनुरूप निवृत्ति करते जाना। श्रामण्य या संन्यास का मतलब है-असत्प्रवृत्ति के पूर्ण त्यागात्मक व्रत का ग्रहण और उसकी साधन सामग्री के अनुकूल स्थिति का स्वीकार । यह मोह-नाश का सहज परिणाम है। इसे सामाजिक दृष्टि से नही आंका जा सकता। कोरा ममत्व-त्याग हो-पदार्थ-त्याग न हो, यह मार्ग पहले क्षण में सरस भले लगे पर अन्ततः सरस नहीं है। पदार्थसंग्रह अपने आप में सदोष या निर्दोष कुछ भी नहीं है। वह व्यक्ति के ममत्व से जुड़कर सदोष बनता है । ममत्व टूटते ही संग्रह का संक्षेप होने लगता है और वह संन्यास की दशा में जीवन-निर्वाह का अनिवार्य साधन मात्र बन रह जाता है। इसीलिए उसे अपरिग्रही या अनिचय कहा जाता है। संस्कारो का शोधन करते-करते कोई व्यक्ति ऐसा हो सकता है, जो पदार्थ-संग्रहके प्रति अल्प-मोह हो, किन्तु यह सामान्य-विधि नही है। पदार्थ-संग्रहसे दूर रह कर ही निर्मोह-संस्कार को विकसित किया जा सकता है, असंस्कारी-दशा का लाभ किया जा सकता है यह सामान्य विधि है । ___पदार्थवाद या जड़वाद का युग है। जड़वादी दृष्टिकोण संन्यास को पसन्द ही नही करता। उसका लक्ष्य कर्म या प्रवृत्ति से आगे जाता ही नही। किन्तु जो आत्मवादी और निर्वाण-वादी हैं, उन्हे कोरी प्रवृत्ति की भूलभुलैया में नही भटक जाना चाहिए । संन्यास-जो त्याग का आदर्श और साध्य की साधना का विकसित रूप है, उसके निमूलन का भाव नही होना चाहिए। यह सारे अध्यात्म-मनीषियो के लिए चिन्तनीय है। चिन्तन के आलोक में आत्मा का दर्शन नही हुआ, तबतक शरीर-सुख ही सब कुछ रहा। जव मनुष्य में विवेक जागा-आत्मा और शरीर दो हैं-यह भेद-ज्ञान हुआ, तब आत्मा साध्य बन गया और शरीर साधन मात्र। आत्मज्ञान के बाद प्रात्मोपलब्धि का क्षेत्र खुला। श्रमणो ने कहा-दृष्टि मोह
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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