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________________ जैन दर्शन में आचार मीमांसा [ १०१ भेद चिन्तन की अपेक्षा अभेद - चिन्तन में और संक्रमण की अपेक्षा, संक्रमण निरोध में ध्यान अधिक परिपक्व होता है । धर्म-ध्यान के अधिकारी असंयत, देश- संयत, प्रमत्त-संयत और अप्रमत्तसंयत होते हैं" " | ९ शुक्ल-ध्यान - व्यक्ति की दृष्टि से : ( १ ) पृथक्त्व-वितर्क -सविचार और ( २ ) एकत्व - वितर्क - अविचार के अधिकारी निवृत्ति वाटर, अनिवृत्ति वाटर, सूक्ष्म - सम्पराय, उपशान्त- मोह और क्षीण-मोह मुनि होते हैं ० । (३) सूक्ष्म क्रिय- अप्रतिपाति के अधिकारी सयोगी केवली होते हैं ६ १ । (४) समुच्छिन्न- क्रिय-निवृत्ति के अधिकारी योगी केवली होते हैं । योग की दृष्टि से : P ( १ ) पृथक्त्व-वितर्क - सविचार — तीन योग ( मन, वाणी और काय ) वाले व्यक्ति के होता है । ( २ ) एकत्व -वितर्क - विचार - तीनो मे से किसी एक योग वाले व्यक्ति के होता है । 1 ( ३ ) सूक्ष्म क्रिय - प्रतिपाति - काय योग वाले व्यक्ति के होता है (४) समुच्छिन्न- क्रिय - निवृत्ति — योगी केवली के होता है ६ ३ गौतम - भगवन् ! व्युत्सर्ग क्या है ? 1 भगवान् — गौतम ! शरीर, सहयोग, उपकरण और खान-पान का त्याग तथा कपाय, संसार और कर्म का त्याग व्युत्सर्ग है ६४ । श्रमण संस्कृति और श्रामण्य कर्म को छोड़कर मोक्ष पाना और कर्म का शोधन करते-करते मोक्ष पाना—ये दोनो विचारधाराएं यहाँ रही है। दोनो का साध्य एक ही है“निष्कर्म वन जाना" । भेद सिर्फ प्रक्रिया में है । पहली कर्म के सन्यास की है, दूसरी उसके शोधन की । कर्म-संन्यास साध्य की ओर द्रुत गति से जाने का क्रम है और कर्म-योग उसकी ओर धीमी गति से आगे बढ़ता है। शोधन का मतलव संन्यास ही है । कर्म के जितने असत् अंशका संन्यास होता है, उतने ही अंश में वह शुद्ध वनता है । इस दृष्टि से यह कर्म-संन्यास का
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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