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________________ [ १५ जैन दर्शन में आचार मीमांसा (२) भापा-निरवद्य वचन बोलना। (३) एपणा-निर्दोष और विधिपूर्वक भिक्षा लेना। (४) आदान-निक्षेप सावधानी पूर्वक वस्तु को लेना व रखना। (५) परिष्ठापना-मल-मूत्र का विसर्जन विधिपूर्वक करना। तात्पर्य की भाषा में इनका उद्देश्य है-हिंसा के स्पर्श से बचना। गुप्ति ___ असत्-प्रवृत्ति तथा यथासमय सत् प्रवृत्ति का भी संवरण करना गुप्ति है। वे तीन हैं : (१) मनो-गुप्ति-मन की स्थिरता-मानसिक प्रवृत्ति का संयमन । (२) वचन-गुप्ति-मौन। (३) काय-गुप्ति-कायोत्सर्ग, शरीर का स्थिरीकरण । मानसिक एकाग्रता के लिए मौन और कायोत्सर्ग अत्यन्त आवश्यक हैं। इसीलिए आत्म-लीन होने से पहले यह संकल्प किया जाता है-"मैं कायोत्सर्ग, मौन और ध्यान के द्वारा आत्म-व्युत्सर्ग करता हूँ-आत्मलीन होता हूँ५३।" आहार आहार जीवन का साध्य तो नही है किन्तु उसकी उपेक्षा की जा सके, वैसा साधन भी नही है। यह मान्यता की जरूरत नहीं किन्तु जरूरत की मांग है। शरीर-शास्त्र की दृष्टि से इस पर सोचा गया है पर इसके दूसरे पहलू बहुत कम छुए गए हैं। यह केवल शरीर पर ही प्रभाव नहीं डालता । उसका प्रभाव मन पर भी होता है। मन अपवित्र रहे तो शरीर की स्थूलता कुछ नही करती, केवल पाशविक शक्ति का प्रयोग कर सकती है। उससे सव घवड़ाते हैं। __ मन शान्त और पवित्र रहे, उत्तेजनाएँ कम हो-यह अनिवार्य अपेक्षा है। इसके लिए आहार का विवेक होना बहुत जरूरी है। अपने स्वार्थ के लिए विलखते मूक प्राणियों की निर्मम हत्या करना बहुत ही क्रूर-कर्म है मांसाहार इसका बहुत बड़ा निमित्त है।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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