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________________ ९६ जैन दर्शन में आचार मौमांसी जैनाचार्यों ने आहार के समय, मात्रा और योग्य वस्तुओ के विषय में बहुत गहरा विचार किया है। रात्रि-भोजन का निषेध जैन-परम्परा से चला है। ऊनोदरी को तप का एक प्रकार माना गया। मिताशन पर बहुत भार दिया गया। मद्य, मांस, मादक पदार्थ और विकृति का वर्जन भी साधना के लिए आवश्यक माना गया। तपयोग भगवान् ने कहा-गौतम ! विजातीय-तत्त्व से वियुक्त कर अपने आप में युक्त करने वाला योग मैंने वारह प्रकार का बतलाया है। उनमें (१) अनशन, (२) ऊनोदरी, (३) वृत्ति-संक्षेप, (४) रस-परित्याग, (५) काय-क्लेश, (६ ) प्रतिसंलीनता-ये छह वहिरङ्ग योग हैं। (१) प्रायश्चित्त, (२) विनय (३) वैयावृत्त्य, (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) व्युत्सर्ग-ये छह अन्तरंग योग हैं। गौतम ने पूछा-भगवन् ! अनशन क्या है ? भगवान् गौतम ? आहार-त्याग का नाम अनशन है। वह (१) इत्वरिक (कुछ समय के लिए ) भी होता है, तथा (२) यावत्-कथित (जीवन भर के लिए) भी होता है। गौतम-भगवन् ! ऊनोदरी क्या है ? भगवान् गौतम ! ऊनोदरी का अर्थ है कमी करना। (१) द्रव्य-ऊनोदरी-खान-पान और उपकरणो की कमी करना। (२) भाव-ऊनोदरी-क्रोध, मान, माया, लोभ और कलह की कमी करना। इसी प्रकार जीविका-निर्वाह के साधनो का संकोच करना वृत्तिसंक्षेप है, सरस आहार का त्याग रस परित्याग है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-वाहर से हट कर अन्तर् में लीन होना। उसके चार प्रकार हैं(१) इन्द्रिय-प्रतिसंलीनता। (२) कषाय प्रतिसंलीनता-अनुदित क्रोध, मान, माया और लोभ का
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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