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________________ ९४ ] जैन दर्शन में आचार मीमांसा हिंसा स्थावर जीव त्रसजीव संकल्पज प्रारम्भज सापराध निरपराध सापेक्ष निरपेक्ष गृहस्थ के लिए प्रारम्भज कृषि, वाणिज्य आदि में होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है। गृहस्थ पर कुटुम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इसलिए सापराध या विरोधी हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। । गृहस्थ को घर आदि को चलाने के लिए बध, बन्ध आदि का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। वह सामाजिक जीवन के मोह का भार बहन करते हुए केवल संकल्पपूर्वक निरपराध त्रसजीवो की निरपेक्ष हिंसा से वचता है, यही उसका अहिंसाअणुव्रत है। ___वैराग्य का उत्कर्ष होता है, वह प्रतिमा का पालन करता है। वैराग्य और बढ़ता है तव वह मुनि बनता है। भूमिका-भेद को समझ कर चलने पर न तो सामाजिक संतुलन बिगड़ता है और न वैराग्य का क्रमिक आरोह भी लुप्त होता है। समिति जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए आवश्यक प्रवृत्तियां भी संयममय और संयमपूर्वक होनी चाहिए। वैसी प्रवृत्तियों को समिति कहा जाता है, वे पाँच (१) ईर्या-देखकर चलना।
SR No.010216
Book TitleJain Darshan me Achar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherMannalal Surana Memorial Trust Kolkatta
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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