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________________ ७२ तत्वार्थ सूत्र जैसा महनीय ग्रन्थ समर्पित किया । गुप्तकाल तक आते-जाते संस्कृत और अधिक प्रतिष्ठित हो चुकी । इसके बावजूद वह जनभाषा नहीं बन सकी बल्कि संभ्रान्त परिवारों में उसका उपयोग लोकप्रिय अधिक हो गया। सिर्षि (ई. ८०५) ने इस तथ्य को इस प्रकार से स्पष्ट किया है संस्कृता प्राकृताचेति भाषे प्राधान्यमहतः । तत्रापि संस्कृता तावद् दुर्विदग्ध हृदि स्थिता ।। बालानामपि सद्बोषकारिणी कर्णपेशला। तथापि प्राकृता भाषा न तेषामभिभाषते ।। उपाय सति कर्तव्यं सर्वेषां चित्तरंजनम् । आतस्तदनुरोधेन संस्कृतेऽस्य करिष्यते ॥' हेमचन्द्र भी इसी तथ्य को अभिव्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं। उनके अनुसार ११-१२ वीं शताब्दी में भी सर्व साधारण जनता प्राकृत भाषा का ही व्यवहार करती थी और अभिजात वर्ग ने संस्कृत भाषा को अपनाया था काव्यानुशासन कारिका की टीका में लिखा है बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुगहायं तत्वज्ञः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ।। इस प्रकार संस्कृत अभिजात एवं सुशिक्षित वर्ग की भाषा थी जबकि प्राकृत का प्रयोग अशिक्षित तथा सामान्य वर्ग किया करता था। जैनधर्म के प्रचार-प्रसार की दृष्टि से जैनाचार्यों के लिए यह आवश्यक था कि वे संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं पर समान रूप से अधिकार करें। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों से ही साधारणतः यह देखा जाता है कि सभी जैनाचार्य इन दोनों भाषाओं के पण्डित रहे हैं । इतना ही नहीं, उन्होंने दोनों भाषाओं में साहित्यसर्जना भी की है। अनेक आचार्यों ने तो अपने आपको "उभयभाषाचक्रवर्ती" भी लिखा है। यही कारण है कि जन साधक आज भी संस्कृत, प्राकृत और आधुनिक भाषाबों में साहित्य-साधना कर रहे हैं। मपश और माधुनिक भारतीय भाषाएँ : प्राकृत भाषा किंवा बोली के चरण आगे बढ़ते गये और अपभ्रंश के रूप में उसका विकास निर्धारित होता गया। यहां अपभ्रंश का तात्पर्य है जनबोली अथवा ग्रामीण भाषा । प्रारम्भ में प्राकृत भी अपभ्रंश में गभित थी परन्तु १. उपमितिमय प्रपंचाचा, १.५१-१२
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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