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________________ से भी प्रभावित होती रही । फलतः लम्ब-लम्बे समास और संस्कृत से परिवर्तित प्राकृत रूपों का प्रयोग होने लगा। प्राकृत व्याकरणों की रचना की आधारशिला में भी इसी प्रवृत्ति ने काम किया । प्राकृत का ऐतिहासिक विकास क्रम : प्राकृत का ऐतिहासिक विकास भी हम तीन स्तरों में विभाजित कर सकते हैं १. प्रथम स्तरीय प्राकृत--(१६०० ई. पू. से ६०० ई. पू.) इस काल की ___ जनबोली का रूप वैदिक या छान्दस् ग्रन्थों में मिलता है । २. द्वितीय स्तरीय प्राकृत--इस काल में प्राकृत में साहित्य लिखा गया । इसे तीन युगों में विभाजित किया जा सकता है-- i) प्रथम युगीन प्राकृत-- i) अर्ध प्राकृत, (पालि, अर्धमागधी और जैन (६०० ई.पू.ले५००ई.) शौरसेनी) ii)शिलालेखी प्राकृत, iii) नियां प्राकृत, iv) प्राकृत धम्मपद की प्राकृत, v) अश्वघोष के नामों की प्राकृत ii) द्वितीय युगीन प्राकृत--अलंकार, व्याकरण, काव्य और नाटकों में (प्रथम शती से बारहवीं प्रयुक्त प्राकृते-महाराष्ट्री, शौरसेनी, शती तक) मागधी, और पैशाची lii) तृतीय युगीन प्राकृत- अपभ्रंश (पञ्चम शती से पन्द्रहवीं शती तक) प्राकृत और संस्कृत : जैनाचार्यों ने प्राकृत के साथ ही संस्कृत भाषा को भी अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया । प्राकृत का जैसे-जैसे विकास होता गया, उसकी बोलियां भाषाओं का रूप ग्रहण करती गई। यह परिवर्तन संस्कृत में नहीं हो सका। इसका मूल कारण यह था कि पाणिनि आदि आचार्यों ने बहुत पहले ही उसे नियमों से जकड़ दिया जबकि प्राकृत व्याकरणों की रचना संस्कृत व्याकरणों के आधार पर लगभग दशवीं शताब्दी में प्रारम्भ हुई । इस समय तक प्राकृत का विकास अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाओं की आधार भूमि तक पहुंच चुका था। ई. की लगभग द्वितीय शताब्दी से जैनाचार्यों ने संस्कृत भाषा में लिखना प्रारम्भ किया। उमास्वामी अथवा उमास्वाति इसके सूत्रधार थे जिन्होंने
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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