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________________ उसके साहित्यिक रूप में आ जाने पर उसका मूल रूप विकसित होने लगा। इसी कुछ विकसित अथवा परिवर्तित रूप को हम अपभ्रंश कहते हैं । धीरे-धीरे अपभ्रंश में भी साहित्य-सृजन होने लगा और भाषा भी क्रमशः विकसित होती गई । फलतः अवहट्ट आदि सोपानों को पार करती हुई वह भाषा किंवा बोली आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं को उत्पन्न करने में कारण बनी। डॉ. भोलानाथ तिवारी के अनुसार आधुनिक आर्य भाषाओं का जन्म इस प्रकार हुआ१. शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी, नागर अपभ्रंश से राजस्थानी, गुजराती पहाड़ी, बोलियां। २. पैशाची अपभ्रंश से लहँदा और पंजाबी । ३. ब्राचड़ अपभ्रंश से सिन्धी। ४. महाराष्ट्री अपभ्रंश से मराठी। ५. अर्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी, और ६. मागधी अपभ्रंश से बिहारी, बंगाली, उड़िया और असमिया भाषाओं का विकास हुआ है। प्राकृत साहित्य के क्षेत्र में : जनभाषा-प्राकृत इस प्रकार इन विभिन्न स्तरों को पार करती हुई बाधुनिक युगीन भारतीय भाषाओं तक पहुँची । समय और सुविधाओं के अनुसार उसमें परिवर्तन होते गये और नवीन भाषायें जन्म लेती गयीं। इसलिए देशकाल भंद से इन सभी प्राकृत भाषाओं की विशेषतायें भी पृथक-पृथक् हो गई। यहाँ उन विशेषताओं की और संकेत करना अप्रासंगिक होगा पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सरलीकरण की प्रवृत्ति इनमें विशेष दिखाई देती है। ऋ का अन्य स्वरों में बदल जाना, ए, औ के स्थान पर ए, ओ हो जाना, द्विवचन का लोप हो जाना, आत्मनेपद के रूप अदृश्य हो जाना, श और ष का प्रायः लोप हो जाना, (कहीं-कहीं ये सुरक्षित भी हैं), संयुक्त व्यज्जनों में परिवर्तन हो जाना आदि कुछ ऐसी विशेषतायें हैं जो प्रायः सभी प्राकृत में मिल जाती हैं। पाकृत भाषा-जनभाषा को अपने सिद्धान्तों के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाने वालों में सर्वप्रथम भगवान् बुद्ध और महावीर के नाम लिये जा सकते हैं। ये सिद्धान्त जब लिपिबद्ध होने लगे तब तक स्वभावत: भाषा के प्रवाह में १. हिन्दी भाषा, १९९७ प. ८५.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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