SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समन्वित पोषण, आत्मा की विस्मृत शक्ति के रूप में विशुद्ध सुखद निर्वाण का अस्तित्व, नैतिक उत्तरदायित्व, समाज का सर्वाङ्गीग अभ्युत्थान, वर्गविहीन क्रान्ति आदि जैसे प्रगतिशील सामाजिक और आध्यात्मिक तत्वोंका मूल्याङ्कन करने वाला यही श्रमण साहित्य रहा है । अतः उसे भारतीय साहित्य का नित नवीन अक्षुण्ण अंग माना जाना अपरिहार्य है । प्राकृत भाषा और आर्यभाषायें : भाषा संप्रेषण शीलता से जुड़ी हुई है । विचारों के प्रवाह के साथ उसकी संप्रेषणशीलता बढ़ती चली जाती है । सृष्टि के प्रथम चरण की भाषा की उत्पत्ति का इतिहास यहीं से प्रारम्भ होता है । मानवीय इतिहास और संस्कृति की धरोहर का संरक्षण भाषा की प्रमुख देन है । उसके उतार-चढ़ाव का दिग्ददर्शन कराना भी भाषा का विशिष्ट कार्य है । इस दृष्टि से प्राकृत भाषा और साहित्य का सही मूल्याङ्कन अभी शेष है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से प्राकृत भाषा का सम्बन्ध भारोपीय भाषा-परिवार में भारतीय आर्यशाखा परिवार से है । विद्वानों ने साधारणतः तीन भागों में इस भाषा-परिवार के विकास को विभाजित किया है १) प्राचीन भारतीय आर्यभाषा काल-१६०० ई. पू. से ६०० ई.पू. तक २) मध्यकालीन आर्यभाषा काल - ६०० ई. पू. से १००० ई. तक ३) आधुनिक आर्यभाषा काल -१००० ई. से आधुनिक काल तक प्राकृत भाषायें प्राचीन कालीन जन सामान्य बोलियों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्हें सामान्यतः 'प्राकृत' की संज्ञा दी जाती है । प्राकृत की प्राचीनतम स्थिति को समझने के लिए हमें तुलनात्मक भाषाविज्ञान का अश्रय लेना पड़ेगा। इसका सम्बन्ध भारोपीय परिवार से है जिसकी मूलभाषा 'इयु' अथवा आर्यभाषा रही है । इसका मूल निवास लिथूनिया से लेकर दक्षिण रूस के बीच कहीं था। यहीं से यह गण अनेक भागों में विभाजित हुआ । उनमें से रूस गण मेसोपोटामियन होता हुआ भारत आया । यही कारण है कि ईरान की प्राचीन भाषा और भारत की प्राचीन भाषा में गहरा सम्बन्ध दिखाई देता है। अवेस्ता और ऋग्वेद की भाषाओं के अध्ययन से यह अनुमान किया जाता है कि यह मार्य शाखा किसी समय पामीर के आसपास कहीं एक स्थान पर साब रही होगी और वहीं से कुछ लोग ईरान की ओर और कुछ भारत की ओर आये होंगे । भारत में आने पर 'इयु' की ध्वनियों में परिवर्तन हो गया । उदाहरण के रूप में इयु का ह्रस्व और दीर्ष अ, ए और ओ इन्डो-ईरानी में लुप्त हो गया ऋग्वेद और अवेस्ता की तुलना से यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाता है।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy