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________________ प्राचीन भारतीय आर्यभाषा का स्वरूप ऋग्वेद और अथर्ववेद में दिखाई देता है। उच्चा, नीचा, दूलभ, पश्चा आदि शब्द इसके उदाहरण हैं। उस समय तक जनभाषा या बोली के ये रूप विकसित होकर छान्दस् का रूप ले चुके थे । इसके बावजूद उसमें जनभाषिक तत्व छिप नहीं सके । जनभाषा के परिष्कृत और विकसित रूप पर ही यास्क ने अपना निरुक्त शास्त्र लिखा । पाणिनि के आते आते वह भाषा निश्चित ही साहित्यिक हो चुकी होगी। पाणिनिके पूर्ववर्ती शाकटायन, शाकल्य आदि वैयाकरणों में से किसी ने जनभागा को व्याकरण में परिबद्ध करने का प्रयत्न किया हो तो कोई असंभय नहीं । परवर्ती वैदिककाल में देश्य भाषाओं के तीन रूप मिलते हैं (१) उदीच्य या उत्तरीय विभाषा, (२) मध्यदेशीय विभाषा, (३) प्राच्य या पूर्वीय भाषा उदीच्य विभाषा सप्तसिन्धु प्रदेश की परिनिष्ठित मध्यदेशीय भाषा मध्यम मार्गीय थी तथा प्राच्यभाषा पूर्वी उत्तरप्रदेश, अवध और बिहार में बोली जाती थी। प्राच्यभाषा भाषी यज्ञीय संस्कृति में विश्वास न करने वाले प्राच्य लोग थे । भ. बुद्ध और महावीर ने इसी जनभाषा को अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया था। पालि-प्राकृत भाषायें इसी के रूप हैं । डॉ सुनीति कुमार चाटूा ने इस सन्दर्भ में लिखा है-"वात्य लोग उच्चारण में सरल एक वाक्य को कठिनता से उच्चारणीय बतलाते हैं और यद्यपि वे दीक्षित नही हैं, फिर भी दीक्षा पाये हुओं की भाषा बोलते हैं। इस कथन से स्पष्ट है कि पूर्व के आर्य लोग (वात्य) संयुक्त व्यञ्जन, रेफ एवं सोष्म ध्वनियों का उच्चारण सरलता से नहीं कर पाते थे। संयुक्त व्यज्जनों का यह समीकृत रूप ही प्राकृत ध्वनियों का मूलाधार है। इस प्रकार वैदिक भाषा के समानान्तर जो जनभाषा चली आ रही थी. वही आदिम प्राकृत थी। पर इस आदिम प्राकृत का स्वरूप भी वैदिक साहित्य से ही अवगत किया जा सकता है।" आर्यभाषा के मध्यकाल में द्राविड और आग्नेय जातियों का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है । मूर्धन्य ध्यनियों का अस्तित्व द्रविड परिवार का ही प्रभाव है। छान्दस् में ळ ध्वनि प्राकृत से पहुंची हुई है। वैदिक और परवर्ती संस्कृत मेंन के स्थान पर ण हो जाना(जैसे फण, पुण्य, निपुणमादि)तया रेफ के स्थान पर ल हो जाना जैसी प्रवृत्तियां भी प्राकृत के प्रभाव की दिग्दर्शिका हैं। प्राकृत और छान्दस् भाषा : प्राकृत भाषा की प्रवृत्तियों की ओर दष्टिपात करने पर ऐसा लगता है कि उसका विकास प्राचीन आर्यभाषा छान्दस् से हुआ है जो उस समय की १. भारतीय वार्यमाषा और हिन्दी, पृ. ७२ द्वितीय संस्करण, प्राकृत भाषा और साहित्य का बलोचनात्मक इतिहास, .६.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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