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________________ केसर लगाते तथा पुष्पमालायें और हरे फल आदि चढ़ाते हैं । तेरहपन्य के बनुयायी इसके विरोधक हैं । जीवन-निर्माण से संबद्ध तरह सिद्धान्तों के कारण इसे तेरापन्य कहा गया और उनसे श्रेष्ठतर बताने के लिए विरोधियों ने अपने पंच की वीसपन्य कह दिया । दोनों पन्यों के समन्वय की दृष्टि से एक तोतापन्न बषवा साठी सोलहपंथ की स्थापना का भी उल्लेख मिलता है। तारणपन्य: पन्द्रहवीं शताब्दी तक मुसलिम आक्रमणों ने जैन मूर्ति कला और स्थापत्य कला को गहरा आघात पहुंचा दिया था। उन्होंने इन सभी सांस्कृतिक धरोहरों को अधिकाधिक परिणाम में नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। ये अचेतन मूर्तियां इस कार्य का कोई विरोध नहीं कर सकी । प्रत्युत उन्होंने आपत्तियों को निमन्त्रित किया । फलस्वरूप दिगम्बर सम्प्रदाय के ही एकव्यक्ति के मन में यह बात जम गई कि मूर्ति-पूजा अनावश्यक है। उसने अपना नया पन्य प्रारम्भ कर दिया । कालान्तर में वही व्यक्ति इस पन्थ के स्थापक तारणतरण स्वामी के माम से प्रसिद्ध हुए । सन् १५१५ में उनका स्वर्गास मल्हारगढ (ग्वालियर) में हवा । यही स्थान आज नसियाजी कहलाता है, जो आज एक तीर्थस्थान बन गया । इस पन्थ का विशेष प्रचार मध्यप्रदेश में हुआ। इसके अनुयायी मूर्ति के स्थान पर शास्त्र की पूजा करते हैं। ये दिगम्बर सम्प्रदाय में मान्य सभी ग्रन्थों को स्वीकार करते हैं । तारणतरण स्वामी ने तारणतरण श्रावकाचार, पण्डितपूजा, मालारोहण, कमलाबत्तीसी, उपदेशशुद्धसार, ज्ञानसमुच्चयसार, अमलपाहुड, चौबीस ठाण, त्रिभङ्गीसार आदि १४ छोटे-मोटे ग्रन्थों की रचना की है । उनमें श्रावकाचार प्रमुख है। २. श्वेताम्बर संघ और सम्प्रदाय जैसा हम पहले कह चुके हैं, श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति एक विकास का परिणाम है। कुछ समय तक श्वेताम्बर साघु अपवाद के रूप में ही कटिवस्त्र धारण किया करते थे। पर बाद में लगभग आठवीं शती में उन्होंने उन्हें पूर्णतः स्वीकार कर लिया। साधारणत: उनके पास ये चौदह उपकरण होते हैं-पात्र, पात्रबन्ध, पात्र स्थापन, पात्र प्रमार्जनिका, पटल, रजस्त्राण, मुच्छक, दो चादर, कम्बल (ऊनी वस्त्र), रजोहरण, मुखवस्त्रिका, मात्रक और चोलक । महावीर निर्वाण के लगभग १००० वर्ष बाद देवर्षिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने अपने ग्रन्थों का संकलन श्रुति परम्परा के बाधार पर किया जिन्हें दिगम्बरो ने स्वीकार नहीं किया। इसका मूल कारण
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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