SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५ दिगम्बर साधुओं में भी लगभग इसी प्रकार का आचरण प्रचलित हो गया था । महेन्द्रसूरि की 'शतपदी' (वि. सं. १२६३ ) इसका प्रमाण है । तदनुसार दिगम्बर मुनि नग्नत्व के प्रावरण के लिए योगपट्ट (रेशमी वस्त्र ) आदि धारण करते थे । उत्तर काल में उसका स्थान वस्त्र ने ले लिया । श्रुतसागर की 'तत्वार्यसूत्र टीका' में यह भी लिखा है कि शीतकाल में ये दिगम्बर मुनि कम्बल आदि भी ग्रहण कर लेते थे और शीतकाल के व्यतीत होने के उपरान्त वे उन्हें छोड़ देते थे । धीरे धीरे ऋतुकाल का भी बन्धन दूर हो गया और साधु यथेच्छ वस्त्र धारण करने लगे । साथ ही गद्दे, तकिये, पालकी, छत्र- चंवर, मठ, सम्पत्ति आदि विलासी सामग्री का भी परिग्रह बढ़ने लगा । ऐसे साधुओं को भट्टारक अथवा चैत्यवासी कहा गया है । उक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि मध्यकालीन जैनसंघ में यह शिथिलाचार सुरसा की भांति बढ़ता चला जा रहा था । विशुद्धतावादी आचार्यों ने उसकी घनघोर निन्दा की फिर भी उसका प्रभाव नहीं पड़ा । दूसरा मूल कारण था कि समाज का मानसिक परिवर्तन बड़ी तीव्रता से होता जा रहा था । भट्टारकों का मुख्य कार्य मूर्तियों की प्रतिष्ठा, मन्दिरों का निर्माण और उनकी व्यवस्था, यान्त्रिक, मान्त्रिक और तान्त्रिक प्रतिपादन तथा यक्ष-यक्षिणियों और देवीदेवताओं का यजन-पूजन हो गया । साधारण समाज में ये कार्य बड़े लोकप्रिय हो गये थे । अतः उपासकों मे भट्टारक समाज के प्रति श्रद्धा जाग्रत हो गई थी । भट्टारकों के कारण मूर्ति और स्थापत्य कला को अधिकाधिक प्रोत्साहन मिला । जैन ग्रन्थ - भण्डार स्थापित किये गये । साहित्य-सृजन और संरक्षण की ओर अभिरुचि जाग्रत हुई तथा जैनधर्म का प्रभावना - क्षेत्र बढ़ गया । जैन संघ और सम्प्रदाय की भट्टारक सम्प्रदाय की यह देन अविस्मरणीय है । तेरहपन्थ और बीसपन्थ : भट्टारक सम्प्रदाय का उक्त आचार-1 - विचार जैनधर्म के कुशल ज्ञाताओं के बीच आलोचना का विषय बना रहा। कहा जाता है कि उसके विरोध में पण्डित प्रवर अमरचन्द बड़जात्या एवं बनारसी दास ने सत्रहवीं शताब्दी में आगरा में एक आन्दोलन चलाया । इसी आन्दोजन का नाम तेरापन्थ रखा गया । इसके नाम के विषय में कोई निर्विवाद सिद्धान्त नहीं है । इस तेरहपन्थ की दृष्टि में भट्टारकों का आचार सम्यक् नहीं । वह तो महावीर के द्वारा निर्दिष्ट मूलाचार को ही मूल सिद्धान्त स्वीकार करता है । यह पन्थ समाज में काफी लोकप्रिय हो गया। दूसरी ओर भट्टारकों अथवा चैत्यवासियों के अनुयायी अपने आप को बीसपन्थी कहने लगे । इनके अनुयायी प्रतिमाओं पर
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy