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________________ ५७ था कि वहां कतिपय प्रकरणों को काट-छाट कर और तोड़-मरोड़कर उपस्थित किया गया था । कालन्तर में श्वेताम्बर संघ में निम्नलिखित प्रधान सम्प्रदाय उत्पन्न हुए चैत्यवासी : श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वनवासी साधुओं के विपरीत लगभग चतुर्थ · शताब्दी ( ३५५ ई.) में एक चैत्यवासी साधु सम्प्रदाय खड़ा हो गया, जिसने बनों को छोड़कर चैत्यों-मन्दिरों में निवास करना और ग्रन्थ संग्रह के लिए बावश्यक द्रव्य रखना विहित माना । इसी के पोषण में उन्होंने निगम नामक शास्त्रों की रचना भी की । हरिभद्र सूरि ने चत्यवासियों की ही निन्दा अपने संबोध प्रकरण में की है । चैत्यवासियों ने ४५ आगमों को प्रामाणिक स्वीकार किया है । उन्होंने मन्दिर निर्माण और मूर्ति-प्रतिष्ठाओं का कार्य बहुत अधिक किया । इन्हें यति कहते हैं । वि. स. ८०२ में अणहिलपुर पट्टाण के राजा चावड़ा ने अपने चैत्यबासी गुरु शील गुण सुरि की आज्ञा से यह निर्देश दिया कि इस नगर में बनवासी साधुओं का प्रवेश नहीं हो सकेगा । इससे पता चलता है कि लगभग आठवीं शताब्दी तक चैत्यवासी सम्प्रदाय का प्रभाव काफी बढ़ गया था । बाद में वि. सं. १०७० में दुर्लभदेव की सभा में जिनेश्वर सूरि और बुद्धि सागर सूरि ने चैत्यवासी साधुओं से शास्त्रार्थ करके उक्त निर्देश को वापिस कराया । इसी उपलक्ष्य में राजा दुर्लभदेव ने वनवासियों को सरतर नाम दिया । इसी नामपर खरतरगच्छ की स्थापना हुई । विविध गच्छ : श्वेताम्बर सम्प्रदाय कालान्तर में विविध गच्छों में विभक्त हो गया । 'उन गच्छों में प्रमुख गच्छ इस प्रकार हैं-' १. उपवेशगच्छ - पार्श्वनाथ का अनुयायी केशी इस का संस्थापक कहा जाता है । २. खरतरगच्छ - जैसा उपर कहा जा चुका है, खरतरगच्छ की स्थापना में दुर्लभदेव वि. सं. १०१७ का विशेष हाथ रहा है । उनके अतिरिक्त वर्षमान सूरि के शिष्य जिनेश्वर सूरि ने चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ किया था । खरतरगच्छ के कालान्तर में दस गच्छ-भेद हुए जिनमें मूर्ति प्रतिष्ठा, मन्दिर - निर्माण आदि होते रहे है- १. विस्तार से देखिये, - जैन धर्म - कैलाशचन्द्र शास्त्री, पु. २९०-२
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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