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________________ आचार के समान बताया है। सोमदेव ने भी 'यशस्तिलक चम्पू' में इसका उल्लेख किया है । श्वेताम्बर चत्यवासियों में भी इसी प्रकार का कुत्सित आचरण घर कर गया था, जिसका उल्लेख हरिभद्र ने 'संबोध प्रकरण' में किया है। उन्होंने लिखा है कि ये कुसाघु चैत्यों और मठों में रहते हैं, पूजा करने का आरम्भ करते हैं, देव-द्रव्य का उपभोग करते हैं, जिन मन्दिर और शालायें बनवाते हैं, रङ्ग-विरङ्गे सुगन्धित धूपवासित वस्त्र पहिनते हैं, बिना नाथ के बलों के सदृश स्त्रियों के आगे गाते हैं, आयिकाओं द्वारा लाये गये पदार्थ खाते हैं, और तरह-तरह के उपकरण रखते हैं, जल, फल, फूल आदि सचित्त द्रव्यों का उपभोग करते है, दो-तीन बार भोजन करते है और ताम्बूल, लवंगादि भी खाते हैं। ये मुहूर्त निकालते हैं, निमित्त बतलाते हैं, भभूत भी देते हैं । ज्योनारों में मिष्ठाहार प्राप्त करते हैं, आहार के लिए खुशामद करते हैं और पूछने पर भी सत्य धर्म नहीं बतलाते। स्वयं भ्रष्ट होते हुए भी दूसरों से आलोचना प्रतिक्रमण कराते हैं । स्नान करते, तेल लगाते, श्रृंगार करते और इत्र-फुलेल का उपयोग करते हैं । अपने हीनाचारी मृतक गुरुओं की दाह भूमि पर स्तूप बनवाते है । स्त्रियों के समक्ष व्याख्यान देते हैं और स्त्रियां उनके गुणों के गीत गाती हैं। सारी रात सोते, क्रय-विक्रय करते और प्रवचन के बहाने विकथा में किया करते है । चेला बनाने के लिए छोटे-छोटे बच्चों को खरीदते, भोले लोगों को ठगते और जिन प्रतिमाओं को भी बेचते-खरीदते हैं । उच्चाटन करते और वैयक यन्त्र, मन्त्र, गण्डा, ताबीज आदि में कुशल होते है। ये श्रावकों को सुविहित साधुओं के पास जाते हुए रोकत हैं, शाप देने का भय दिखाते हैं, परस्पर विरोध रखते हैं और चेलों के लिए एक दूसरे से लड़ मरते हैं। जो लोग इन भ्रष्ट चरित्रों को भी मुनि मानतं थे, उनको लक्ष्य करके हरिभद्र ने कहा है "कुछ अज्ञानी कहते है कि यह तीर्थकरों का वेष है, इसे भी नमस्कार करना चाहिए । अहो! धिक्कार हो इन्हें । मैं अपने शिर के शूल की पुकार किसके बागे जाकर करूं।' १. बनागारपर्मामृत, २९६. २. जनसाहित्य और इतिहास, पृ. ४८९. ३. संबोषप्रकरण, ७६: वैन साहित्य का इतिहास, प. ४८०-८१.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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