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________________ ३९२ ८. व्यक्तित्व का लोकप्रिय गठन ९. दीर्षणीवन, सम्पत्ति, समृद्धि, भक्ति एवं बुद्धि की प्राप्ति. १०. अभीष्ट प्रभावों का आकर्षण एवं स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति. ११. सामाजिक और आर्थिक विशेषाधिकारों की उपलब्धि के कारण ___ सम्माननीय सामाजिक स्थान की प्राप्ति. ये संस्कार जिनसेन ने मनुस्मृति आदि वैदिक ग्रन्थों के आधार पर संरचित किये हैं। उनके पूर्व इनका कोई विशेष अस्तित्व देखने नहीं मिलता। बैदिक सम्प्रदाय में प्रचलित संस्कारों को जैन रूप देकर जैन सम्प्रदाय में उन्हें प्रचलित करने का लक्ष्य यह था कि दोनों सम्प्रदाय अधिक से अधिक निकट आयें। जिनसेन का यह उद्देश्य पूरा हो भी गया। सौमनस्य वातावरण के निर्माण में यह उनका एक महत्त्वपूर्ण योगदान कहा जा सकता है। नारी की स्थिति : जैन संस्कृति में सामान्यतः नारी की स्थिति पुरुष के समकक्ष ही दिखाई देती है । वैदिक संस्कृति में मान्य ऋणसिद्धान्त को यहां स्वीकार नहीं किया गया अतः पुत्र-पुत्री में भी कोई भेदक-रेखा नहीं खींची गयी। पुत्र को कोई धार्मिक महत्त्व भी नहीं दिया गया। इसके विपरीत पुत्री का महत्त्व कहीं अधिकमा रहा है। यद्यपि विवाह के क्षेत्र में भी वे प्रायः स्वतन्त्र थीं फिर भी मातापिता की अनुमति पूर्वक विवाह सम्बन्ध निश्चित करना अधिक माना जाता था। सामान्य परिवार में भी यदि पुत्री सुन्दर और स्वस्थ रही तो उसका सम्बन्ध राज परिवार से होने की सम्भावना बढ़ जाती थी। इस दृष्टि से कन्या का होना विषाद का कारण नहीं था। परिवार के बीच भी उसकी स्थिति अच्छी थी। माता-पिता, भाई, भाभी, ननद सभी एक साथ रहते और उनके बीच किसी प्रकार का संघर्ष नहीं होता था। वह दासी के रूप में नहीं बल्कि परिवार के एक संमान्य सदस्य के रूप में जीवन यापन करती थी, शिक्षा व्यवस्था भी उसकी पूरी होती थी। विद्यावती नारी को सर्वश्रेष्ठ पद दिया जाता था। पिता की संपत्ति में विवाहके पूर्व तक ही उनका अधिकार था। वैधव्य अवस्था में नारी के सामाजिक उत्तरदायित्व और अधिकार वापिस नहीं लिये जाते थे। उसे समाज में हेय भी नहीं समाना जाता था।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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