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________________ ३९१ २. मान्य क्रियायें: ___गर्भावतार से लेकर निर्वाण पर्यन्त व्रतात्मक क्रियायें दीक्षान्वय क्रियायें कहलाती हैं। इनकी संख्या ४८ है- १. अवतार क्रिया (सच्चा-गुरु प्राप्त करना), २. वृत्तिलाभ (व्रत धारण करना), ३. स्थानलाभ, ४. गणग्रहण, ५. पूजाराध्य, ६. पुण्ययज्ञ (चौदह पूर्वो का अध्ययन करना), ७. दृढचर्या, ८. उपयोगिता, ९. उपनीति, १०. व्रतचर्या, ११. व्रतावरण, १२. विवाह, १३. वर्णलाभ, १४. कुलचर्या, १५. गृहीशिता, १६. प्रशान्तता, १७. गृहत्याग, १८. दीक्षाघ, १९. जिनरूपता, २०-४८ मोना-ध्ययनवृत्ति से लेकर अनिवृत्ति क्रिया तक की क्रियायें गर्भान्वय क्रियाओं (नं २५ से ५३) तक की क्रियानों के समान है। अध्यात्म की दृष्टि से इन क्रियाओं का विशेष महत्त्व है। ३. कन्वयादि क्रियायें : ये क्रियायें समीचीन मार्ग की आराधना के फलस्वरूप पुण्यात्माओं को प्राप्त होती हैं। उनकी संख्या सात है- १. सज्जातिक्रिया-विशुद्ध जाति रत्नत्रय की प्राप्ति में कारण होती है। २. सद्गृहित्व क्रिया, ३. पारिवाज्य क्रिया, ४. सुरेन्द्रता क्रिया, ५. साम्राज्य क्रिया, ६. आर्हन्त्य क्रिया, और ७. परिनिर्वृत्तिक्रिया। इन क्रियाओं में सामाजिक तत्त्व अधिक उभरे हैं। इसलिये व्यक्तित्व के विकास की दृष्टि से उनका बहुत उपयोग है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने इन संस्कारों की उपयोगिता को निम्न प्रकार से मूल्यांकित किया है १. स्वस्थ पारिवारिक जीवन यापन के हेतु व्यक्तित्व का गठन २. भौतिक आवश्यकताओं के सीमित होनेसे समाज के आर्थिक संगठन की समृद्धि का द्योतन ३. मानवीय विश्वासों, भावनाओं, आशागों के व्यापक प्रसार के हेतु विस्तृत जीवन भूमि का उर्वरीकरण. ४. व्यक्तित्व विकास से सामाजिक विकास के क्षेत्र का प्रस्तुतीकरण . ५. सामाजिक समस्याओं का नियमन तथा पंचायतों की व्यवस्था का प्रतिपादन ६. सामाजिक समुदायों और पारिवारिक जीवन का स्थिरीकरण. . ७. आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन का समन्वयीकरण.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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