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________________ ३४१ यवन (यूनान), सुवर्ण भूमि, पहब (ईरान) आदि देशों में भ्रमण किया था।' पार्श्वनाथ शाक्य देश (नेपाल) गये थे। अफगनिस्तान में भी जैनधर्म के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है।' वहाकरेज एमीर (अफगानिस्तान) से कायोत्सर्ग मुद्रा में संगमरमर से निर्मित तीर्थकर की मूर्ति भी प्राप्त हुई है। ईरान, स्याम और फिलिस्तीन में दिगम्बर जैन साधुनों का उल्लेख आता है।' /यूनानी लेखक मिस्र एबीसीनिया, और इथ्यूपिया में भी दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं। काम्बुज, चम्पा, बल्गेरिया आदि में भी जैनधर्म का प्रचार । हुवा है। केमला (बल्गेरिया) से तो एक कांस्य तीर्थकर मूर्ति भी प्राप्त हुई है। जैन संस्कृति का प्रचार-प्रसार विदेशों में अधिक क्यों नहीं हुआ, यह एक साधारण प्रश्न हर अध्येताके मन में उभर आता है। इसका सबसे बड़ा कारण यह रहा, जहां तक मै समझता हूँ, कि अशोक जैसे कर्मठ और क्रान्तिकारी नरेश की छाया जैनधर्म को नहीं मिल सकी। इसका तात्पर्य यह नहीं कि जैनधर्म को राजाश्रय नहीं मिला। राजाश्रय तो बहुत मिला है और यही कारण है कि भारत में बौद्धकला और स्थापत्य की अपेक्षा जैन कला और स्थापत्य परिमाण और गुण दोनों की अपेक्षा अधिक है । परन्तु यह राजाश्रय मातृभूमितक ही सीमित रहा । विदेशों तक नहीं जा सका। एक अन्य कारण यह भी माना जा सकता है कि जैन आचार अपेक्षाकृत कठिन है। बौद्धधर्म की तरह यहां शैथिल्य अथवा अपवादात्मक स्थिति नहीं रही। बौद्धधर्म ने विदेशी संस्कृति के परिवेश में अपने आपको बहुत कुछ परिवर्तित कर लिया जो जैनधर्म नहीं कर सका । जैनधर्म के स्थायित्व के मूल में भी यही कारण है। जैन इतिहास के देखने से यह भी आभास होता है कि जैनाचार्य भी स्वयं जैनधर्म को विदेशों की ओर भेजने में अधिक उत्सुक नहीं रहे। वे तो सदा साधक रहे हैं, आत्मोन्मुखी रहे है। राजनीति के जंजाल में वे प्रायः कभी नहीं पड़े। इसके बावजूद जैनधर्म विदेशों में पहुंचा। इसे विदेशियों की गुणग्राहकता ही कहनी चाहिए। आधुनिक युग में भी जैनधर्म और संस्कृति के क्षेत्र में अन्वेषण का सूत्रपात करने वाले विदेशी विद्वान ही हैं। १. मावस्यक नियुक्ति, गाया, ३३६-३३७ 1. पानाप परिष-सकलकीति, १५.७६-८५ ३. Journalof the Royal Asiatic Society of India,Jam, 1885 ४. जे. एफ.-मर, कुमचन्द मभिनन्दन पंच, पृ. ३७४ ५. Asiatic Researches, vol. 3, पृ.६
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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