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________________ ३४२ जैन पुरातत्व २. जैन कला एवं स्थापत्य जैन संस्कृति मूलतः आत्मोत्कर्षवाद से संबद्ध है इसलिए उसकी कला एवं स्थापत्य का हर अंग अध्यात्म से जुड़ा हुआ है । जैन कला के इतिहास से पता चलता है कि उसने यथासमय प्रचलित विविध शैलियों का खूब प्रयोग किया है और उनके विकास में अपना महनीय योगदान भी दिया है । आत्मदर्शन और भक्ति भावना के वश मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण किया गया और उन्हें अश्लीलता तथा श्राङ्गारिक अभिनिवेशों से दूर रखा गया। वैराग्य भावना को सतत जागरित रखने के लिए चित्रकला का भी उपयोग हुआ है। यहाँ हम जैन पुरातत्त्व (कला) को पांच भागों में विभाजित कर रहे हैंमूर्तिकला, स्थापत्यकला, चित्रकला, काष्ठशिल्प, और अभिलेख तया मुद्राशास्त्र। इन सभी कला-प्रकारों में अनासक्त भाव को मुख्य रूप से प्रतिबिम्बित किया गया है। इसी में उसका सौन्दर्यबोध और लालित्य छिपा हुआ है।' १. मूर्तिकला उत्तर भारत: जैन मूर्ति विज्ञान के क्षेत्र में साधारणतः चौबीस तीर्थकरों, शासन देवियों यक्ष-यक्षिणियों तथा देवों की मूर्तियों का तक्षण हुआ है। अतः सर्वप्रथम उनके विषय में जानकारी आवश्यक है। बोबीस तीर्थकरों की मान्यता आगम काल से तो मिलती ही है। मोहेनजोदड़ो, हडप्पा तथा लोहानीपुर से प्राप्त मस्तक विहीन नग्न योगी की मूर्तियों को यदि ऋषभदेव की मूर्तियों के रूप में मान्यता मिल जाय तो यह परम्परा और भी प्राचीन कही जा सकती है। इन तीर्थकरों की मूर्तियों पर प्रारम्भ में साधारणतः चिन्ह नहीं उकेरे जाते थे बल्कि उनकी पहचान उनकी पादपीठ में उटैंकित शिलालेखों से होती थी। वक्षस्थल पर श्रीवत्स तया हस्ततल या चरणतल पर धर्मचक्र अथवा उष्णीष के चिन्ह अवश्य होते थे। ऋषभदेव के शिरपर जटाजूट, सुपार्श्वनाथ के शिरपर पांच फण, तया पार्श्वनाथ प्रतिमा पर सप्तफण भी उकेरे जाते थे। कलिंग से नन्द द्वारा लायी गई जिन१. इस भाग के लेखन में मैने भारतीय मानपीठ से प्रकाषित बैन स्थापत्यकला का उपयोग किया है। बतः उसके प्रकाशक व लेखकों के प्रति समहूँ।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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