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________________ २५९ सामर्थ्य रहता है और यथार्थ गुरू में यथार्थ देव और यथार्थ शास्त्र दोनों के गुण विद्यमान रहते है। जिन और सरस्वती की उपासना, सत्संगति, त्याग, परोपकार, सेवा-सुश्रूषा, जन-कल्याण, निश्छलता,माधुर्य, स्वप्रशंसा और परनिन्दा त्याग बादि जैसे मानवीय गुणों का सम्यक् परिपालन करना भी पाक्षिक श्रावक का प्राथमिक कर्तव्य है। अष्टमूलगुण का परिपालन और सप्त व्यसनों का त्याग भी उसे आवश्यक है। इस दृष्टि से उसे सर्वथा अवती नहीं कहा जा सकता।' दान, पूजा, शील, उपवास ये चार श्रावक-धर्म के लक्षण है। स्वाध्याय, संयम, तप आदि क्रियाओं का पालन भी एक साधारण श्रावक का कर्तव्य माना जाता है। आचार के सन्दर्भ में पाक्षिक श्रावक को आठ मुल गुणों (पंचाणुव्रत, तथा मद्य-मांस-मधु त्याग) का पालन करना आवश्यक है, यह प्राचीनतम रूप रहा होगा। उत्तरकाल में जब धर्म-साधना की ओर मुकाव कम होने लगा तो आचार्यों ने पंचाणुव्रतों के स्थान पर पंचोदुम्बर फलों (पीपल, बड़, उदुम्बर, गूलर और पिलखन) का त्याग निर्दिष्ट कर दिया। इन फलों में त्रस जीव रहते हैं। अतः उनका भक्षण विहित नहीं माना गया। इनके अतिरिक्त रात्रि-भोजन त्याग, पानी छानकर पीना, देवदर्शन करना ये तीन कर्तव्य भी पाक्षिक श्रावक के दैनन्दिन जीवन में जोड़ दिये गये है। उनकी दैनंदिनी में षट्कर्मों को भी आवश्यक कहा गया है-देवपूजा, गुरुभक्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान। इन मर्यादाओं और कर्तव्यों का पालन करने से एक साधारण व्यक्ति की आध्यात्मिक भूमिका का सुंदर गठन हो जाता है। वह अग्रिम साधना से कभी विचलित नहीं होता क्योंकि प्राथमिक साधना का वह भरपूर अभ्यास कर चुकता है। पाक्षिक-श्रावक के कर्तव्यों की ओर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि जो व्यक्ति अपने आपको किसी धर्मविशेष से सम्बद्ध नहीं करना चाहते, वे भी यदि उनका समुचित रूप से पालन करें तो मानवता के संरक्षण और शांतिप्रस्थापन करने में उनका महनीय योगदान होना स्वभाविक है। इसी प्रकार बौद्ध धर्म में उपासक के लिए दस शिक्षापद और पंचशील का पालन करना आवश्यक बताया गया है। २. नैष्ठिक श्रावक ग्यारह प्रतिमायें : श्रावक के व्रतों का परिपालन करनेवाला श्रावक नैष्ठिक कहलाता है। कषायों के भयोपशम की क्रमशः वृद्धि करने की दृष्टि से श्रावक देशसंयम का पात करने वाली दर्शनादि ग्यारह प्रतिमा रूप संयम स्थानों का पालन करता है। १. काटी संहिता, २.४७-४९.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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