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________________ २५८ व्यक्ति श्रावक की इन तीनों अवस्यामों का परिपालन यदि सही रूप से करता है तो वह ऋषियों से भी अधिक पवित्र माना गया है।' श्रावक धर्म का पालन करने वाला वस्तुतः वही हो सकता है जो न्यायपूर्वक धन कमानेवाला हो, गुणों को, गुरुजनों को तथा गुणों में प्रधान व्यक्तियों को पूजनेवाला हो, हित-मित तथा प्रिय वक्ता हो, धर्म-अर्थ-काम रूप त्रिवर्ग को परस्पर विरोध रहित सेवन करने वाला हो, त्रिवर्ग के योग्य स्त्री, ग्राम और मकान सहित लज्जावान् हो, शास्त्र के अनुकूल आहार-विहार करने वाला हो, सदाचारियों की संगति करनेवाला हो, विवेकी, उपकार का जानकार, जितेन्द्रिय, धर्मविधि का श्रोता, करुणाशील और पापभीरू हो। न्यायोपात्तधनो, यजन्गुणगुरून्, सद्गीस्त्रिवर्ग भजन् - नन्योन्यानुगुणं, तदर्हगृहिणी-स्थानालयो हीमय:। युक्ताहारविहार-आर्यसमितिः, प्राज्ञः कृतज्ञो वशी शृण्वन्धर्मविधिं, दयालु धर्मीः, सागारधर्म चरेत् ।' (१) पाक्षिक श्रावक साधक की यह प्रथम अवस्था है। इसमें वह धर्म के सर्वसाधारण स्वरूप की ओर झुकता है और आगे बढ़ने की पृष्ठभूमि तैयार करता है। माध्यात्मिक साधना की ओर उसका झुकाव है इसलिए उसे पाक्षिक कहा गया है । पाक्षिक श्रावक का सर्वप्रथम यह कर्तव्य है कि वह सभी प्रकार की स्थूल हिंसा से निवृत्त होकर अहिंसा की ओर अपने पग बढाये। बैर और अशान्ति को पैदा करनेवाली हिंसा, प्राणी के जीवन में कभी सुखदायी नहीं हो सकती। अत परिवार और आस-पड़ोस में अपनी अहिंसावृत्ति से शांति बनाये रखना नितानः अपेक्षित है। यह उसका प्रथम कर्तव्य है। पाक्षिक श्रावक हिंसा को छोड़ने के लिए सबसे पहले मद्य-मांस-मधु औ पंच उदुम्बर फलों को छोड़ दे। इसके बाद वह स्थूल हिंसा-मूठ-चोरी-कुशीत और परिग्रह को छोड़कर पञ्च अणुव्रतों का पालन करे।' यथार्थ-देव-शास्त्र-ग की पहिचान होना भी उसे आवश्यक है। यथार्य देव वही हो सकता है जिस वीतरागता और निर्दोषता हो। यर्थाथ शास्त्र में सम्यक् साधना के दिशाबोधक १.पुरककाम्य, ८. २. सापारधर्मामृत, १.११; भादगुण श्रेणिसंग्रह, पृ. २, धर्मविन्दु ३-५. .. सागारधर्मामृत, २.२.१६०
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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