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________________ १९३ प्रमावसंप्लव: प्रमाण-संप्लव का तात्पर्य है एक ही प्रमेय में बनेंक प्रमाणों की प्रवृत्ति । बोडों की दृष्टि में कि पदार्थ क्षणिक होता है इसलिए वे प्रमाण-संप्लव स्वीकार नहीं कर पाते । परन्तु जैन दार्शनिक अनेकान्तवादी है बतः के प्रमाण संप्लव को स्वीकार करते हैं। उनके सिद्धान्त में अमुक ज्ञान के द्वारा पदार्थ के ममुक अंश का निश्चय होने पर भी अगृहीत अंशों के ज्ञान-ग्रहण की दृष्टि से प्रमाणान्तर के लिए क्षेत्र रहता है । नयायिक तो प्रत्येक अवस्था में प्रमाणसंप्लव मानते हैं। पारावाहिकमान : एक ही घट में घट विषयक अज्ञान के निराकरण करने के लिए प्रवृत्त हुए पहले घटज्ञान से घट की प्रमिति हो जाने पर यह घट है ' 'यह घट है' इस प्रकार उत्पन्न हुए ज्ञान को धारावाहिक ज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान प्रमाण है या नहीं, इस विषय पर बौखाचार्य धर्मकीर्ति के बाद विवाद प्रारम्भ हुमा । न्याय-वैशेषिक परम्परा में धारावाहिक ज्ञान को 'अधिगतार्यक' मानकर भी प्रमाण कोटि में संमिलित कर लिया गया। मीमांसक-परंपरा भी उसे स्वीकार करती है । बौद्ध परम्परा ने साधारणतः उसे प्रमाण की सीमा से बाहर रखा। जैन परम्परा में इस सन्दर्भ में दो विचारधारायें मिलती है। प्रथम विचारधारा धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण नहीं मानती क्योंकि उसकी दृष्टि में अनषिगत अथवा अपूर्व अर्थ का ग्राही शान ही प्रमाण है । दूसरी विचारधारा के अनुसार धारावाहिक ज्ञान ग्रहीतग्राही हो या अग्रहीतग्राही, पर यदि वह स्वार्थ का निश्चय करता है तो वह प्रमाण है । प्रथम मत के पोषक आचार्य अकलंक हैं और द्वितीय विचारधारा को व्यक्त करने वाले बाचार्य विद्यानन्द, हेमचन्द्र आदि है। साल के मेवः जैसा हम पीछे लिख चुके हैं, जैनदर्शन में ज्ञान को आत्मा का गुण माना १. न्यायदीपिका. १. १५, पृ. १३ 2.न्यापमंजरी. प. २२ ३. शास्त्रदीपिका पृ. १२४-१२६ ४. हेतुबिन्दुटीका पृ. ३० ५.प्रमाणपरीक्षा, प..
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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