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________________ १९४ गया है और उसे स्व-पर- प्रकाशक बताया गया है। रागद्वेषादिकं परिणामों के कारण यह ज्ञान गुण प्रच्छन्न हो जाता है। कर्मों के आवरण जैसे-जैसे दूर होते चले जाते हैं आत्मा के स्वरूप की परतें वैसे-वैसे उद्घाटित होती जाती हैं । इसे हम 'ज्ञान' कह सकते हैं । जनदर्शन में ज्ञान के पांच भेद माने गये हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान' | 'मति-शान' इन्द्रिय और मनकी सहायता से उत्पन्न होता है। 'श्रुतज्ञान' श्रुत (शास्त्रों अथवा श्रवण ) से उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है । इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना ही मर्यादापूर्वक रूपी पदार्थों को स्पष्ट जानने वाला ज्ञान 'अवधिज्ञान' है। दूसरे के मनोगत अर्थ को जानने वाला ज्ञान 'मन:पर्ययज्ञान' ज्ञान है । और समस्त द्रव्यों, पर्यायों और गुणों को स्वतः जाननेवाला ज्ञान 'केवल शान' है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान : जैनदर्शन के अनुसार ये दोनों ज्ञान प्रत्येक जीव में होते हैं । श्रुतज्ञान मतिज्ञान पूर्वक होता है । मति और श्रुत, दोनों नारद-पर्वत की तरह एकसाथ रहने वाले हैं। दोनों के विषय समान होते हुए भी उनमें अन्तर दृष्टव्य है । मति शान " यह गो शब्द है " ऐसा सुनकर ही निश्चय करता है किन्तु क्षुतवन मन और इन्द्रिय के द्वारा गृहीत या अगृहीत पर्यायवाले शब्द या उसके कार्य को श्रोत्रेन्द्रिय के व्यापार के बिना ही नयादि योजना द्वारा विभिन्न विशेषों के साथ जानता है' । श्रुतज्ञान के बीस प्रकारों का भी उल्लेख मिलता है'। श्रुतज्ञान दो प्रकार का होता है-अंगप्रविष्ट और अंगबाहघ । मतिज्ञान की उत्पत्ति में क्रमशः अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा कारण होते हैं । व्यक्ति जब वस्तु विशेष को जानने के लिए तैयार होना तो उसे उसकी सत्ता का आभास होगा । मतिज्ञान का प्रारम्भ यहीं से होता है । सत्ता का प्रतिभास होने के बाद अथवा विषय और विषयी का सन्निपात होने पर मनुष्यत्व आदि रूप अर्थग्रहण 'अवग्रह' है । "यह मनुष्य है" ऐसा जानने के बाद उसकी भाषा आदि विशेषताओं के कारण यह संदेह होता है कि " 'यह पुरुष दक्षिणी है या पश्चिमी " इस प्रकार के संशय को दूर करते हुए 'ईहा' ज्ञान की उत्पत्ति होती है । उसमें निर्णय की ओर झुकाव होता है। यह शान जितने १. मतिभुतावधिमनःपर्य केवलानि ज्ञानम् - तस्वार्थसूत्र, १.८ २. वर्षार्षवार्तिक, १. ९.२६-२९. है, बखागम, पुस्तक ६, १. २१.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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