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________________ प्रधान का परिणाम नहीं है । जैनदर्शन में इन सभी मतों का खण्डन कर यह व्यवस्थित किया गया है कि शान चैतन्य स्वरूप है और वह स्वपरप्रकाशक है। नैयायिकों ने 'कारकसाकल्य' (समग्रकारक) को ज्ञान की उत्पत्ति में कारण माना है। सांस्य 'इन्द्रियवृत्ति' (इन्द्रियों का विषयाकार होना) को प्रमिति में साधकतम मानते हैं। प्रभाकरवादी मीमांसक ज्ञातव्यापार (मात्मा, इनिय, पवार्य और मन के सम्मिलित होने पर ज्ञाता का व्यापार) को प्रमाण मानते हैं बोर बोट जनों के समान 'शान' को ही प्रमाण मानते हैं। पर उनकी मान्यता में कुछ अन्तर है। वे निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण की कोटि में रखते है जबकि जैन सविकल्पक ज्ञान को प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। प्रमाण और मय: प्रमाण वस्तु को समग्र रूप से ग्रहण करता है और नय उसके अखण्ड रूप को खण्ड-खण्डकर के मुख्य रूप से ग्रहण करता है। प्रमाण में भी मुख्य-गीण भाव रहता है पर जिसकी मुख्यता रहती है उसी के द्वारा वस्तु के समस्त रूप को जान लिया जाता है। उदाहरणतः प्रमाण घट को 'घटोऽयम्' के रूप में ग्रहण करता है पर नप उसे 'रूपवान् घटः' के रूप में देखता है।' नय प्रमाण का ही कार्य करते हैं अतः उपचार से उनमें प्रमाणत्व स्थिर करने में कोई विरोध नहीं। पर अन्तर यह है कि नय एकान्त को ग्रहण करता है बार प्रमाण अनेकान्त को। प्रमाण का विषय वस्तु के संपूर्ण धर्मों की अखण्ड सत्ता को शापित करना है जबकि नय उसके किसी एक अंश को जानता है। इसी तरह प्रमाण सब धर्मों को युगपत् ग्रहण करता है जबकि नय क्रम से एक-एक को। अतः नय को 'शेय' कहा गया है, 'उपादेय' नहीं। वे सम्यक् भी हैं और मिप्या भी सम्यक् एकान्त को 'नय'कहा जाता है और मिथ्या एकान्त को 'नयामास'।' मानाब विचार: प्रमाण किन कारणों से उत्पन्न होता है, यह भी एक विवाद का प्रश्न रहा है। यह विवाद प्रारम्भ में वेद तक सीमित था। बाद में दर्शन के अन्य क्षेत्रों में पहुंच गया। प्रश्न यह था कि प्रमाण को स्वतः माना जाय अथवा परतः ? १. न्यायमपरी, पृ. १2 १. सांस्यकारिका, 26 ३. सकलादेखः प्रमाणाधीनः विकलादेशो नयापीन:- सिदि १.६ अपमानपनि
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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