SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १९० जैन दर्शन शान को ही साधकतम करण मानता है । बिना किसी व्यवधान केशान ही पदार्थज्ञान कराने का सामर्थ्य (योग्यता) रखता है, इन्द्रियादिक नहीं । अदृष्ट और कर्म भी सहकारी कारण नहीं क्योंकि आकाश मौर इन्द्रिय के समिकर्ष काल में भी चक्षु का उन्मीलन-निमीलन बना रहता है । अतः यही माना जाना चाहिए कि शाता की अर्थग्रहण-शक्ति ही ज्ञान का साधकतम करण है। इसी सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जैन दर्शन में चक्ष को 'अप्राप्यकारी बताया गया है। उसका मन्तव्य है कि यदि चक्षु पदार्थ का स्पर्श कर ज्ञान प्राप्त करती होती तो उसे स्वयं में लगे अञ्जन को देख लेने की सामर्ष होनी चाहिए । पर दर्पण में देखे बिना वह दिखाई नहीं देता । आवृत वस्तु को चक्षु नहीं देख पाती, यह तर्क भी असंगत है क्योंकि कांच, अभ्रक, स्फटिक आदि से बावृत पदार्थ दृश्य होते हैं । चुम्बक आवृत पदार्थ को आकृष्ट नहीं कर पाता पर निरावृत लोहे को समीप से अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। अतः मावृत वस्तु को ग्रहण करने में जो समर्थ न हो वह प्राप्यकारी होता है. यह नियम निर्दोष नहीं। जब चक्षु अग्नि की तरह तैजस रूप है तो उसे प्रकाश की आवश्यकता क्यों होती है ? और फिर यदि सन्निकर्ष को प्रमाण मानेंगे तो सर्वज्ञ का अभाव हो जायेगा। वह दूरवर्ती और सूक्ष्मवर्ती पदार्थों के साथ अपने मन और इन्द्रियों का सनिकर्ष नहीं कर पायगा। अतः सन्त्रिकर्ष को प्रमाण नहीं माना जा सकता।' इसी प्रसंग में जैन दार्शनिकों ने मीमांसकों के विवेकल्यातिवाद, चार्वाक् के बल्यातिवाद, बोडों के असतख्यातिवाद, सांख्यों के प्रसिदार्थस्यातिवाद, योगाचार बौखों के आत्मख्यातिवाद, ब्रह्मवैतवादियों के अनिर्वचनीयस्यातिवाद आदि का भी खण्डन किया है। पैसा ऊपर कहा गया है, शान 'स्वपरप्रकाशक' होता है, अतः उसे पदार्थ केशान करने में अन्य शानों की सहायता नहीं लेनी पड़ती। कि वह 'स्व' पोजानता है इसलिए 'पर' रूप पट, पट बादि को भी जानता है। यदि 'स्व' को नहीं पानता तो 'पर' को कैसे जान सकता ? मीमांसक ज्ञान को 'स्वसंवेदी' न मानकर परोक्ष रूप मानते हैं। इसका मुख्य कारण उनकी दृष्टि में यह है कि उसकी कर्मरूप से प्रतीति नहीं होती। नयापिकमान को 'शानान्तरलेख' मानते हैं और सांस्य ज्ञान को 'अचेतन' स्वीकार करते है क्योंकि वह प्रधान का ही परिणाम है। आत्मा चेतन है क्योंकि वह १. ब्लागातिक, १.१०. पृ. ५१६ न्यायकुमुवचन, प.७५-८2
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy