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________________ १८१ दे है जो केवल तर्क के बल पर ज्ञान-दर्शन की सिद्धि कराते हैं । ऐसे दार्शनिक 'तत्की' अथवा 'वीमंसी' कहे जाते हैं, और iii) तीसरे वे हैं जो स्वयमेव (समयेव) अन्तर्ज्ञान और अन्तदर्शन को पहले प्राप्त करते हैं और बाद में ही उसका व्याख्यान करते हैं । निगण्ठ (जैन)बौड और आजीविक सम्प्रदाय इस बेणी में आते हैं। निग्गण्ठ नातपुत्त (महावीर) ने स्वयं के पुरुषार्थ से मात्मा के स्वभाव रूम विशुख शान और दर्शन को प्राप्त किया था। इसलिए उन्होंने बडा की अपेक्षा ज्ञान को प्रणीततर माना था (सबाय बो गहपति ज्ञानं येव पनीततरं)" यह अन्तर्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यक्वारिन के परिपालन से ही प्राप्त किया जा सकता है। सम्पदर्शन। जीव, अजीव आश्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सप्त तत्त्वों का सम्यग्ज्ञान होना सम्यग्दर्शन है। सोमदेव ने इस परिभाषा को और अधिक दार्शनिक बना दिया । उन्होंने कहा कि अन्तरंग और बहिरंग कारणों के मिलने पर आप्त (देव), शास्त्र और पदार्थों का तीन मूढ़ता रहित और आठ अंग सहित जो श्रवान होता है उसे सम्यग्दर्शन कहते हैं।' यहाँ अन्तरंगकारण हैदर्शन मोहनीयकर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम जिसके प्रगट होने पर बात्मा में विशुद्धता प्रगट हो जाती है। इसके होने पर प्रशम (क्रोधादि विकारों की शान्ति), संवेग (धर्म का सहज परिपालन), अनुकम्पा (भ्रातृत्व) और आतिथ्य (मात्मा और कर्म का सम्बन्धज्ञान) जैसी भावनायें उसमें पैदा हो जाती हैं। काललब्धि आने पर उपशम सम्यक्त्व प्रगट हो जाता है। इसमें पूर्वजन्मस्मरण मादि बाहपनिमित्त होते हैं । यहाँ आप्त के स्वरूप को जानना भी मावश्यक है। स्वामी समन्तभद्र ने उसका लक्षण इस प्रकार किया है माप्तेनोच्छिन्नदोषण सर्व नागमेशिना । भवितव्यं नियोगन नान्यथा हपाप्तता भवेत् ॥ - १. मणिाम निकाय, २. पृ. २११ २. वही, १, पृ. ९२-३; बंगुत्तर निकाय, १, १, 220-1 ३. तत्वार्य अवानं सम्यग्दर्शनम्, तत्त्वापंसूत्र, 1-2 ४. उपासकाध्ययन, ४८. पृ. १३ ५. प्नकरमावकाचार, ५.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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