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________________ १८० तरह ज्ञान से यदि मोक्ष हो तो यह संभव ही नहीं हो सकता कि ज्ञान भी हो जाये और मोक्ष न हो । पूर्णज्ञान होने पर भी कुछ संस्कार ऐसे रह जाते हैं जिनका नाश हुए बिना मुक्ति नहीं होती और जबतक उन संस्कारों का क्षय नहीं होता तबतक उपदेश आदि हो सकते हैं । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि संस्कारक्षय से मुक्ति होती है, ज्ञान मात्र से नहीं । यदि संस्कार क्षय के लिए अन्यकारण अपेक्षित है तो वह चारित्र हो सकता है, अन्य नहीं । अत: दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनों का अविनाभाव सम्बन्ध है । तीनों का सम्यक् परिपालन ही मोक्ष का मार्ग है । साध्य की विफलता और टकराव का प्रमुख कारण इन तीनों तत्त्वों का अलगाव होना है । इन तीनों में यद्यपि लक्षण भेद है फिर भी ये मिलकर एक ऐसी आत्मज्योति पैदा करते हैं जो अखण्ड भाव से एक मार्ग बन जाती है । यह उसी प्रकार होता है जिस प्रकार दीपक, बत्ती, तेल, आदि विलक्षण पदार्थ मिलकर एक दीपक बन जाते हैं। यहाँ यह बात भी दृष्टव्य है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में पूर्व की प्राप्ति होने पर उत्तर की प्राप्ति भजनीय है अर्थात् हो भी और न भी हो, किन्तु उत्तर की प्राप्ति में पूर्व का लाभ निश्चित है । वह होगा ही । 'जैसे जिसे सम्यक्चारित्र होगा उसे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन होंगे ही। पर 'जिसे सम्यग्दर्शन है उसे पूर्ण सम्यग्ज्ञान, ज्ञान सामान्य नहीं, और सम्यक् चारित्र 'का होना आवश्यक नहीं । वह हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता ।" यहाँ यह दृष्टव्य है कि कहीं-कहीं रत्नत्रय का प्रारम्भ ज्ञान से भी होता है । जैन दर्शन की दृष्टि से आत्मा में स्वभावतः अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्तवीर्य ये चार तत्त्व संनिहित रहते हैं । दर्शन और ज्ञान की परिपूर्ण अभिव्यक्ति ही अनन्तसुख और अनन्तवीर्य की प्राप्ति में कारण होती है । यं तत्त्व तभी प्राप्त होते हैं जब आत्मा अपने अनादिकालीन कर्मबन्ध से विमुक्त होकर स्वस्वभाव रूप विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर लें । ज्ञान और दर्शन ज्ञान और दर्शन प्रारम्भ से ही दार्शनिकों के बीच विवाद का विषय रहा । महात्मा बुद्ध ने ऐसे दार्शनिकों को तीन श्रेणियों में विभक्त किया हैप्रथम वह है जो परम्परा के आधार पर अपने-अपने ज्ञान और दर्शन की बात करते हैं, जैसे त्रैविद्य ब्राह्मण । उन्हें 'अनुस्साविका' कहा गया है, ii) द्वितीय १. उत्पार्थवार्तिक, १.४७-६८ २. उत्तराभ्यवन, २८. ३५० कल्पसून; गूढाचार_८९८
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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