SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 206
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ अकलंक ने बाप्त को अविसंवादी होना आवश्यक माना है। सोमदेव ने सर्वशता के साथ-साथ उसे जगत का उद्धारक, निर्दोषी, वीतरागी तथा समस्त जीवों का हितकारी होना भी बताया है और यह कहा है कि ऐसा व्यक्ति भूख, प्यास, भय, देष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोष, खेद, मद, रति, माश्चर्य, जन्म, निद्रा, और विषाद इन अठारह दोषों से रहित होता है।' सम्यक्त्व व्यक्ति का एक देवता की तरह रक्षक है। यदि अपने यथोक्त गुणों से समन्वित सम्यग्दर्शन उसे एक बार भी प्राप्त हो जाता है तो समस्त पापों से कलुषित मति होने के कारण जिन पुरुषों ने नरकादिक गतियों में से किसी एक की आयु का बन्ध कर लिया है उन मनुष्यों का नीचे के छः नरकों में, माठ प्रकार के व्यन्तरों में, दस प्रकार के भवनवासियों में, पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों में, तीन प्रकार की स्त्रियों में, विकलेन्द्रियों में, पृथिवीकाय, जलकाय, तैजसकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय में जन्म नहीं होने देता। बह संसार को सान्त कर देता है । कुछ समय के पश्चात् उस आत्मा के सम्यग्ज्ञान और सम्यकुचारित्र अवश्य प्रगट हो जाते हैं। जैसे बीजों में अच्छी तरह से किया गया संस्कार बीजों की वृक्ष रूप पर्यायान्तर होने पर भी वर्तमान रहता है, उसी तरह सम्यक्त्व जन्मान्तर में भी आत्मा का अनुसरण करता है, उसे छोड़ता नहीं। सिद्ध चिन्तामणि के समान असीम मनोरयों को पूर्ण करता है। व्रत तो औषषिवृक्षों (जो वृक्ष फलों के पकने के बाद नष्ट हो जाते हैं उन्हें औषषिवृक्ष कहा जाता है) की तरह मोक्ष रूपी फल के पकने तक ही ठहरते हैं तथा कलेवा की तरह नियतकाल तक ही रहते हैं, किन्तु सम्यक्त्व ऐसा नहीं है। पारे और अग्नि के संयोग मात्र से उत्पन्न होने वाले स्वर्ण की तरह पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानकर उनमें मन को लगाने मात्र से प्रगट होने वाले सम्यक्त्व के लिए न तो समस्त श्रुत को सुनने का परिश्रम ही करना आवश्यक है, न शरीर को ही कष्ट देना चाहिए, न देशान्तर में भटकना चाहिए । अर्थात् सम्यक्त्व के लिए किसी काल विशेष या देश विशेष की आवश्यकता नहीं है। सब देशों और सब कालों में वह हो सकता है। इसलिए जैसे नींव को प्रासाद का, सौभाग्य को रूप सम्पदा का, जीवन को शारीरिक सुख का, मूल बल को विजय का, विनम्रता को कुलीनता का, और नीति पालन को राज्य की स्थिरता का मूल कारण माना जाता है, वैसे ही महात्मागण सम्यक्त्व को ही समस्त पारलौकिक अम्युनति का अथवा मोक्ष का प्रथम कारण १. मष्टयती-अष्टसहली, १. २३६ २. उपासकायवन, ९-५. ..वही, प. १२-१३.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy