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________________ पुथल और माधुनिक विज्ञान : पुद्गल का यह सिद्धान्त माधुनिक वैज्ञानिक सिद्धान्तों से मिलता-जुलता है। बाधुनिक विज्ञान भी तत्त्व को परिवर्तनशील मानता है । अणुबम बणुगों के विभाजन का परिणाम है और उद्जनवन उनके संयोग का । ये दोनों पुद्गल की पर्यायें है । जनदर्शन ने शब्द को पौद्गलिक माना है और इसी के फलस्वरूप रेडियो, टेलिग्राम, बेतार का तार, टेप रिकार्डर आदि बन सके है। सारा जगत पुद्गल द्रव्य की पर्यायों का परिणाम है। पन-विधुत और ऋणविद्युत के रूप में स्निग्ध और रूक्ष का संयोग होता है। परमाणु की गतिशीलता विज्ञान में ऋणाणु (इलेक्ट्रॉन) के रूप में विद्यमान है जो प्रति सेकन्ड लगभग २००० किलो मीटर की गति से चक्कर लगाता है । बन्धकार, प्रकाश आदि को विज्ञान भी शक्ति के रूप में स्वीकार करता है जो पुद्गल का ही रूपान्तर है । धर्म और अधर्म द्रव्य को वैज्ञानिक शब्दावली में पिर' कहा जा सकता है। बाकाश और काल को भी स्वतन्त्र द्रव्यों के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। सृष्टि सर्चना : जैसा ऊपर कहा गया है, स्कन्धों के परस्पर भेद, मिलन आदि से पुद्गलों की उत्पत्ति होती है । उसी को हम जगत-सृष्टि भी कहते हैं । शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छवास पुद्गल के ही परिणमन हैं । ये दृश्य और अदृश्य दोनों प्रकार के होते हैं। कार्माण शरीर निराकार होते हुए भी चूंकि मूर्तिमान पुद्गलों के सम्बन्ध से अपना फल देता है अतः वह पौद्गलिक है । शब्द श्रोत्रेन्द्रिय के विषय होते हैं। वायु के द्वारा वह रुई की तरह एक-एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रेरित किया जाता है । नल, बिल, रिकार्ड, रेडियो आदि में पानी की तरह शब्द रोके जाते हैं। अतः पौद्गलिक हैं। ___ इसी प्रकार गुण-दोष विचार और स्मरणादि व्यापार में लगा मन भी पोद्गलिक है । श्वासोच्छवास रूप कार्य से आत्मा का अस्तित्व सिब होता है। सुख, दुःख जीवन और मरण भी पुद्गलों के ही परिणमन से होते है। शब्द, अन्धकार, छाया, आतप, प्रकाश आदि रूप पुद्गल भी स्कन्धों के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं, जैसा पहले कहा जा चुका है। लोक-सष्टि भी एक विवाद का विषय बना रहा है। यह संसार सादि है या अनादि, अन्त है या अनन्त, ईश्वर द्वारा निर्मित है या स्वाभाविक, आदि
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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