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________________ , जैन दर्शन में पुद्गलों का विभाजन आठ वर्गणामों के रूप में मिलता है। वर्गना का तात्पर्य है वर्ग अथवा श्रेणी । पुद्गल के ये आठ वर्ग हैं१. औदारिक वर्गणा- स्थूल शरीर के रूप में पृथ्वी, पानी, तथा मनुष्य, पशु, पक्षी के शरीर । २. आहार वर्गणा- किसी विशिष्ट ऋषि के विचार के संक्रमम के रूप में परिणत परमाणु । ३. भाषा वर्गणा- शब्द रूप परमाणु । ५. क्रियक वर्गना- देवों और नारकियों का परमाणुमय शरीरं । ५. मनो वर्गणा- मनोभाव रूप परमाणु। ६. श्वासोच्छवास वर्गणा- आत्मा अथवा प्राणवायु के रूप में परिणत परमाणु । ७. तेजस वर्गणा- तैजस रूप परमाणु। ८. कार्माण वर्गणा- कर्म रूप वर्गणा । पुद्गल का अर्थ ही है पूरण (पुद्) और गलन (गल्) इन दो धर्मो से संयुक्त पदार्थ । ये दोनों धर्म सूक्ष्म से सूक्ष्म और स्थूल से स्थूल पदार्थों में विद्यमान है । अणु और पृथ्वी में भी यह पूरण-गलनात्मक परिवर्तन होता रहता है। उसमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों गुण पाये जाते हैं जो मष्ट नहीं होते । अतः वह सत् है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप है। परमाणुवाद और स्कन्यवाद इसी की देन है । भेद, संघात और भेदसंघात इन तीन प्रक्रियाजों से बन्ध सदैव होता रहता है । मोतिकवादी दर्शनों में पुणत: भौतिकवादी दर्शन भी संसार की सृष्टि पुद्गल द्वारा निर्मित मानते हैं । डिमोक्रिटस ने परमाणु को अविभाज्य (indivisible) और अविनाशी KIndestructable) कहा है । इन असंख्य परमाणुगों से ही सृष्टि की सर्जना होती है । इपीक्यूरस ने परमाणुषों को गतिशील माना है। परमाणुवाद और प्रकृतिवाद भौतिकवादी हैं। यन्त्रवाद (mechanism) के अनुसार सारी सष्टि कार्यकारण सम्बन्ध से स्वतःसंचालित होती है । कुल मिला कर हम यह कह सकते हैं कि भौतिकवादी दर्शनों में पुद्गल उसे कहा जाता है जिसमें स्थान या विक् (space) घेरने की क्षमता हो और जिसमें चलत्व (mobilitiy) और मचमत्व (Intertia)गुण विद्यमान हों।
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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