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________________ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिस्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि द्रव्य अनादिनिधन है । वह अन्वय रूप से अपनी पर्यायों में अवस्थित रहता है। परिणमन करना उसका स्वभाव है। परिणमन रूप कार्य की उत्पत्ति में कुछ कारण निमित्त रूप से काम करते हैं। राग-द्वेषादि परिणाम निमित्त रूप ही हैं। उपकार का तात्पर्य भी निमित्त होता है । घट मिट्टी की पर्याय है। घट में मिट्टी अन्तय रूप से विद्यमान है। अतः घट के निर्माण में मिट्टी उपादान है । कुम्हार निमित्त कारण हैं और चाक, जल आदि सहकारी कारण हैं । शाश्वत पदार्थ में इस प्रकार की कार्यकारण व्यवस्था नहीं बन पाती । मिट्टी उपादान है और घट उपादेय है । कुम्हार निमित्त है और उसका कार्य घट नैमित्तिक है । इस प्रकार उपादानउपादेय के साथ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध अनादि काल से चला आ रहा है । उपादान और निमित्त साधारणतः एक प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि द्रव्य की पर्याय कब-कैसी हो, यह निमित्त पर निर्भर है, उपादान पर निर्भर नहीं । पर इसे सर्वथा ठीक नहीं कह सकते । पूर्व समय का जैसा उपादान होगा, उत्तर क्षण में उसी प्रकार का कार्य होगा । निमित्त उसमें अन्यथा परिणमन नहीं कर सकता । कार्य का नियामक उपादान ही होता है, निमित्त नहीं । कार्य की उत्पत्ति में स्वभाव, पुरुषार्थ, काल, नियति और कर्म (पर पदार्थ की आवश्यकता) ये पांच कारण होते हैं । इनमें स्वभाव का सम्बन्ध द्रव्य की स्वशक्ति या उपादान से है, पुरुषार्थ का बलवीर्य से, काल का स्वकाल ग्रहण से, नियति का सम्बन्ध उपादान से और कर्म का सम्बन्ध निमित्त से है । जो भवितव्यता की बात करते हैं उनकी दृष्टि उपादान की योग्यता पर होती है । योग्यता अथवा पूर्व कर्म को देव कहते हैं और वर्तमान पुरुषार्थ को पौरुष कहते है । दोनों के संबन्ध से ही अर्थसिद्धि होती है । अर्थ सिद्धि के सन्दर्भ में दो विचार धारायें मिलती है-एक के अनुसार सभी कार्य नियत समय पर ही होते हैं और दूसरी के अनुसार बाहय निमित्तों के बिना कार्य हो नहीं सकते । इन दोनों में से जैनधर्म क्रमनियमित पर्याय के सिद्धान्त को स्वीकार करता है । उसके अनुसार प्रत्येक कार्य क्रम से स्वकाल में अपने उपादान के अनुसार होता रहता है । यहां एकान्ततः नियतिवाद का समर्थन नहीं मिलता अन्यथा कार्य कारण परम्परा को कैसे किया जायगा ? अनेक कारणों में से नियति को एक कारण अवश्य माना गया है । १.बाप्तीमांसा, ५९
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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