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________________ १२५ अन्य सामान्य और विशेष द्रव्य के सामान्य और विशेष रूप होते हैं । सामान्य, अन्वय और गुण एकार्थक शब्द है। विशेष, भेद और पर्याय ये पर्यायार्थक शब्द हैं । सामान्य को विषय करने वाला द्रव्याथिक है और विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्षिक है । सामान्य (गुण) अकेले द्रव्य में ही रहते हैं किन्तु विशेष (पर्याय) द्रव्य और गुण, दोनों में रहते हैं । सामान्य दो प्रकार का हैतिर्यक्सामान्य और ऊर्वतासामान्य । तिर्यक्सामान्य वह है जो एक काल में बनेक देशों में स्थित अनेक पदार्यों में समानता की अभिव्यक्ति कराये । जैसेजीव के दो भेद है-संसारी और मुक्त । ऊर्ध्वतासामान्य में ध्रौव्यात्मक तत्व पर विचार किया जाता है । जैसे जीव द्रव्याथिक दृष्टि से शाश्वत है और पर्यायार्षिक दृष्टि से अशाश्वत है । यहाँ जीव का अर्थ ऊर्ध्वता सामान्य से है। सामान्य के समान पर्याय अथवा विशेष भी दो प्रकार का है-तिर्यकविशेष और ऊर्वताविशेष । तिर्यक्सामान्य के साथ रहने वाला विशेष तिर्यविशेष और ऊर्ध्वतासामान्य के साथ रहने वाला विशेष ऊर्वताविशेष कहलाता है। __इस प्रकार द्रव्य और पर्याय में सापेक्षिक भेद है । पर्याय की दृष्टि से उनमें भेद रहता है पर द्रव्य की दृष्टि से वे एकत्व में गुंथे हुए रहते हैं। आत्मा ही सामायिक है । यहां आत्मा द्रव्य है और सामायिक उसकी पर्याय है । द्रव्य के बिना पर्याय नहीं रह सकती और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रह सकता। भाचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य की इसी परिभाषा को स्पष्ट किया है सदवट्ठिदं सहावे दव्वं दव्वस्स जो हि परिणामो । अत्येसु सो सहावो ठिदिसंभवणाससंबद्धो ।। ण भवो मंगविहीणो भंगो वा णान्थि संभवविहीणो। उप्पादो वि य भंगो ण विणा घोव्वेण अत्येण ॥' इसे स्पष्ट करने के लिए साहित्य में प्रायः यह उदाहरण दिया जाता है । एक राजा के पास स्वर्ण का घड़ा है । पुत्र उसको मिटाकर मुकुट बनवाना चाहता है पर पुत्री ऐसा नहीं चाहती । राजा की दृष्टि मात्र स्वर्ण पर है। वह पुत्र का हठ पूरा कर देता है। मुकुट बनने पर पुत्र को हर्ष, पुत्री को विषाद और राजा को न हर्ष और न विषाद होता है । यहाँ स्वर्ण पुद्गल, गुण अथवा द्रव्य है । अतः वह ध्रौव्य है । मुकुट का उत्पाद और घट पर्याय का विनाश हमा । यह उत्पाद और विनाश पर्याय का प्रतीक है। १. बावा ने बन्यो । सामाइए गाया ये बन्यो । सामाइपस्स बढ़े, भगवती सूत्र, १९-७९. २.प्रवचनसार, २.७-८.5 सर्विसिटि, १. ५.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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