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________________ १२७ जनेतर दर्शनों में द्रव्य का स्वरूप बौडर्शन में उन्य का स्वरूप : जैसा हम पीछेकह चुके हैं, बोधर्म में द्रव्य रूप में 'रूप' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ इस रूप का विस्तार भी बहुत हुआ है। रूप को अभिधम्मत्थसंगह में पांच प्रकार से निर्दिष्ट किया गया है--समुद्देश,विभाग,समुत्थान,कलाप एवं प्रवृत्तिकम । समुद्देश में पृथ्वी, अप, तेज और वायु ये चार महाभूत हैं और उनका आश्रय लंकर उत्पन्न रूपों को ११ प्रकार से बताया गया है । जैनधर्म में इन महाभूतों को स्कन्ध कहा है। बौद्धधर्म इनके ही आश्रय से चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्वा एवं काय को उत्पन्न मानता है जिन्हें उपादायरूप कहा गया है । जैन-बौर धर्म में इन्हीं को पञ्चेन्द्रियाँ भी कहा जाता है । रूप, शब्द, गन्ध, रस, तथा अपघातूवजित भतत्रय संख्यात नामक स्पष्टव्य को 'गोचर' रूप कहा जाता है । जैनधर्म में इनमें से कुछ पुद्गल के लक्षण के रूप में आ जाते हैं और कुछ पुद्गल की पर्यायों के रूप में अन्तर्भूत हो जाते हैं । भूतरूप, प्रसादरूप, गोचररूप, भावरूप, हृदयरूप, जीवितरूप, आहाररूप, परिच्छेदरूप, विज्ञप्तिरूप, विकाररूप एवं लक्षणरूप, इस प्रकार ग्यारह प्रकार के रूप होते हैं । चार भूत रूप, पांच उपादायरूप, पांच गोचररूप. दो भावरूप, हृदयरूप, जीवितरूप और आहाररूप में अठारह प्रकार के रूप स्वभावरूप, सलक्षणरूप, निष्पन्न रूप, रूपरूप एवं संमर्शनरूप होते है। यहाँ सभावरूप द्रव्य वाचक है। परमार्थ रूप से वह सत् स्वभावी है । परन्तु यहाँ परमार्थरूप से आकाशादि का अस्तित्व स्वीकार नहीं किया गया। जबकि जैन दर्शन में आकाश को एक स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है। इन रूपों का लक्षण अनित्यता, दुःखता, अनात्मता, तथा उपचय, सन्तति, जरता एवं अनित्यता नामक उत्पाद, स्थिति और भङ्ग है । आकाशादि में ये लक्षण नहीं पाये जाते अतः बौद्धधर्म में उन्हें अलक्षण रूप माना है । जिस प्रदेश का विलेखन नहीं किया जा सकता उस प्रदेश को आकाश कहा जाता है । उसके चार भेद है-अजटा काश, परिच्छिन्नाकाश, कसिणुग्घाटिमाकाश तथा परिच्छेदाकाशा। जनधर्म में आकाश के दो भेद है-लोकाकाश और अलोकाकाश । बोरधर्मी में मान्य अजटाकाश जैनधर्म में मान्य अलोकाकाश है । शेष लोकाकाश है। बौदर्शन इस दृष्टि से भेदवादी और असत्कार्यवादी है। वहां किसी भी पदार्य में अन्वय नहीं माना जाता । इसलिए क्षणभंगवाद और शून्यवाद जैसे १. बाप्तमीमांसा, ५९
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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