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________________ बौखदर्शन में स्वलक्षण और सामान्य लक्षण ये दो तत्त्व माने गये हैं। स्वलक्षण का तात्पर्य है वस्तु का असाधारण तत्त्व'। इसमें प्रत्येक परमाणु की सत्ता पृथक् और स्वतन्त्र स्वीकार की गई है। इसके साथ ही वह सजातीय और विजातीय परमाणुओं से व्यावृत्त है। परमाणुओं में जब कोई सम्बन्ध ही नहीं तो अवयवी के अस्तित्त्व को कैसे स्वीकार किया जा सकता हैं ? बौद्ध दर्शन में सामान्य तत्व को एक कल्पनात्मक वस्तु माना गया है। परन्तु चूंकि वह स्वलक्षण की प्राप्ति में कारण होता है अतः मिथ्या होते हुए भी उसे पदार्य की श्रेणी में रखा गया है। मनुष्यत्व, गोत्व आदि को सामान्य तत्व कहा गया है। स्वलक्षण तत्व अर्थ क्रियाकारी है अतः परमार्थ सत् है पर सामान्य अर्थ क्रियाकारी नहीं अतः उसे संवृतिसत् माना है।' जैनधर्म में द्रव्य का जो स्वरूप निर्दिष्ट है लगभग वही स्वरूप बौवधर्म में भी स्वीकार किया गया है। जैनधर्म के निश्चयनय और व्यवहार नय बोबदर्शन के परमार्थ सत् और संवृत्तिसत् हैं। स्वलक्षण और सामान्यलक्षण भी इन्हीं के नामान्तर हैं । पर अन्तर यह है कि द्रव्य को संस्कृत-स्वरूप मानते हुए भी बौद्धदर्शन, विशेषतः माध्यमिक सम्प्रदाय उसे निःस्वभाव अथवा शून्य कह देता है। इसकी सिद्धि में उसका कहना है कि संस्कृत रूप से उत्पाद आदि के स्वीकार किये जाने पर उत्पाद, स्थिति और मंग में सभी वस्तुओं की पुनः उत्पत्ति होती है और पुनः उत्पत्ति होने पर उत्पत्ति के बाद उत्पत्ति होगी। जैसे उत्पत्ति के बाद उत्पत्ति होना न्यायोचित है वैसे ही भंग का होना भी न्यायोचित है। इसलिए भंग का भी संस्कृतत्व होने के कारण उत्पाद, भंग और स्थिति से सम्बन्ध है । अतएव भंग का भी अन्य भंग का सद्भाव होने से विनाश होगा। उस भंग का भी विनाश होगा। उसके बाद होने वाले भंग का भी विनाश होगा। इस प्रकार अनवस्था दोष हो जायेगा और अनवस्था होने पर सभी पदार्थों की असिद्धि हो जायेगी। इसलिए स्वमावतः संस्कृत लक्षणों की सिद्धि नहीं हो सकती। वे शून्य और निःस्वभाव हैं। जो दिखते हैं वे माया के समान है। १. न्यायविनिश्चयटीका, पृ. १५. २. प्रमाणवातिक, २-३.; तर्कभाषा, पृ. ११. ३. उत्पादस्थिति मगानां युगपन्नास्ति संभवः । क्रमशः संभवो नास्ति सम्भवो वियते कदा ॥ उत्पादादिषु सर्वेषु सर्वेषां सम्भवः पुनः । तस्मादुत्पादवद्भगो भगवद् दृश्यते स्थितिः ।। -पतु यतकम्, ३६०-३६१.
SR No.010214
Book TitleJain Darshan aur Sanskriti ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhagchandra Jain Bhaskar
PublisherNagpur Vidyapith
Publication Year1977
Total Pages475
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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