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________________ जैन-दर्शन विषयसंरक्षणानंद-इन्द्रियों के विषयों की रक्षा करने में आनंद मानना या परिग्रह में आनंद मानना, बार बार उसका चितवन करना विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान है । यह ध्यान पहले, दूसरे, तीसरे, चौथे गुणस्थान तक होता है तथा धनादिक की रक्षा करने के निमित्त कभी कभी पांचवें गुणस्थान में भी होता है । यह रौद्रध्यान नरक का कारण है परंतु सम्यग्दृष्टी का रौद्रध्यान सम्यग्दर्शन के प्रभाव से नरक का कारण नहीं होता। याद कारण वश किसी मुनिके यह रौद्रध्यान हो जाय तो उसका मुनिपना या छठा गुणस्थान उसी समय छूट जाता है । इस प्रकार रौद्रध्यानका निरूपण किया ।.अब धर्म्यध्यान का निरूपण करते हैं । धर्म्यध्यान धर्मका चितवन करने से जो ध्यान होता है उसको धर्म्यध्यान कहते हैं ! यह धय॑ध्यान सम्यग्ज्ञानका मूल कारण है, उपशम का कारण है, अप्रमादका कारण है; मोह को दूर करने वाला है, धर्म में दृढ़ता करने वाला है, सुखका कारण है और परंपरा मोक्षका कारण है। इसके भी चार भेद हैं । यथा प्राज्ञाविचय-श्रागम को प्रमाण मान कर उसके अनुसार समस्त तत्त्वों का श्रद्धान करना आज्ञाविचय है। जिस समय किसी सर्वज्ञ या प्राचार्य आदि उपदेशक का अभाव हो, कर्मों के उदय से बुद्धि की मंदता हो और चितवन में आये हुए पदार्थ अत्यंत सूक्ष्म हों, हेतु दृष्टांत कुछ मिल नहीं सकते हों उस समय भगवान जिनेन्द्र
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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