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________________ जैन-दर्शन जब कभी वही जीव ग्रहण करता है, तथा जो मध्यमें गृहीत. अगृहीत, मिश्र पुद्गल परमाणु अनंतवार ग्रहण किये थे वे गिनती में नहीं आते; इसी प्रकार समस्त कर्म वर्गणा दुवारा ग्रहण कर ली जाय तब एक कर्म द्रव्य परिवर्तन होता है । इसमें अनंत काल लग जाता है । इसो प्रकार नो कर्म वर्गणाओंका भी ग्रहण होता है। इसको नो कर्म द्रव्य परिवर्तन कहते हैं। क्षेत्रपरिवर्तन-कोई सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तक जीव सर्व जघन्य अवगाहना को लेकर लोक के मध्यके आठ प्रदेशों को अपने शरीर के मध्य के आठ प्रदेशों में लेकर उत्पन्न हो। मर कर संसार में परिभ्रमण कर फिर उसी रूपसे जन्म ले । इस प्रकार वह असंख्यात वार इसी प्रकार जन्म ले । फिर एक प्रदेश अधिक चढाकर जन्म ले। इस प्रकार समस्त लोकाकाश में जन्म लेकर लोकाकाश के क्षेत्रको पूर्ण करे । मध्य में अनंत बार दूसरे स्थान में जन्म लेकर जो काल व्यतीत करता है वह इसमें नहीं गिना जाता है। इसमें अनंतानंत काल व्यतीत होता है। कालपरिवर्तन-कोई जीव उत्सर्पिणी काल के पहले समय में उत्पन्न हुा । फिर परिभ्रमण कर दूसरे तीसरे उत्सपिणी काल के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ। फिर अनंत कालतक परिभ्रमण कर किसी उत्सर्पिणी के तीसरे समय में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार अनुक्रम से उत्सर्पिणी काल के समस्त समय तथा अवसर्पिणी काल के समस्त समय जन्म लेकर पूर्ण करे । इसी प्रकार मरणकर समस्त समय पूर्ण करे । तब एक काल परिवर्तन होता है।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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