SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन-दर्शन उपयोग ही नित्य है। यही समझकर मुनिराज सदाकाल अनित्यानुप्रेक्षाका चितवन करते रहते हैं। अशरणानुप्रेक्षा-इस संसार में शरणभूत पदार्थ दो प्रकारके हैं-एक लौकिक शरण और दूसरे लोकोत्तर शरण । लौकिक शरण के तीन भेद-जीव, अजीच, मिश्र हैं । राजा देवतादि जीव शरण हैं, दुर्ग या किलादि अजीव शरण हैं, गांव नगर आदि मिश्र शरण हैं। पंच परमेष्ठी लोकोत्तर जीव शरण हैं, उनकी प्रतिमाए अजीव शरण हैं और धार्मिक उपकरण सहित साधु समुदाय मिश्र जीव शरण हैं । जिस प्रकार सिंह के मुख में पाये हुए हरिण के बच्चे को कोई शरण नहीं है उसी प्रकार संसार में इस जीवको कोई शरण नहीं है । मरण के समय कोई किसी को नहीं बचा सकता । धर्म ही आत्मा को विपत्तियों से बचा सकता है। इस प्रकार मुनिराज सदा काल चितवन करते रहते हैं तथा संसार से विरक्त होकर मोक्ष मार्ग में लगे रहते हैं। ... संसारानुप्रेक्षा--एक शरीर को छोडकर दूसरा शरीर धारण करना~चारों गतियों में परिभ्रमण करना-संसार है । इसके पांच भेद हैं-द्रव्य परिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवत्तेन, भवारवर्त्तन और भावपरिवर्तन । द्रव्य-परिवर्तन-किसी जोवने किसी एक समय में जो कर्म रूप पुद्गल ग्रहण किये उसमें जितने रूप, रस, गंध, स्पश थे उतने ही रूप, रस, गंध स्पर्श को लिये उतने ही यैसे ही पुद्गल परमाणु
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy