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________________ इसीलिये यह सम्यग्दर्शन कमीशनादिक गुणों में जैन-दर्शन सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ही हैं । इसलिये सम्यग्दर्शनादिक गुणों में अनुराग न होने से सम्यग्दर्शन कभी नहीं टिक सकता और इसीलिये यह विचिकित्सा सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला अतिचार कहलाता है। चौथा अतिचार-अन्यष्टि-प्रशसा है। अपने मन से अन्य मतकी या अन्यमतको धारण करने वालों को प्रशंसा करना अन्यदृष्टि प्रशंसा है । विना अनुराग के प्रशंसा कभी नहीं हो सकती। जब वह अन्य मत की प्रशंसा करता है तो समझना चाहिये कि वह अन्य मत से अवश्य अनुराग रखता है और जब वह अन्य मत से अनुगग रखता है तो भगवान् जिनेन्द्र देवमें वा उनके कहे हुए धर्म में उसका अनुराग या श्रद्धान कभी नहीं कहा जासकता। इसीलिये यह अन्यष्टि प्रशंसा सम्यग्दर्शनको मलिन करने वाला अतिचार है । सम्यग्दर्शनका पांचवां अतिचार-अन्यष्टि संस्तव है। संस्तव का अर्थ स्तुति या वचन से प्रशंसा करना है। जिस प्रकार मनके द्वारा अन्य धर्म की प्रशंसा करने में दोप आता है उसी प्रकार वचन से प्रशंसा करने में भी सम्यग्दर्शन में दोप लगता है। इसलिये यह भी सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला सम्यग्दर्शन का अतिचार है। इस प्रकार ये पांचों अतिचार सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाले हैं; इसलिये इनका त्याग करना ही सम्यग्दर्शन को निर्मल करना है और यात्माका कल्याण करना है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन को धारण करनेवाला , सम्यग्दृष्टी पुरुप - समस्त दोपों को छोड कर निर्मल सम्यग्दर्शन धारण करता हुआ
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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