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________________ जेन-दर्शन २७ ] विपरीत पच्चीस दोष कहलाते हैं। आठों अंगों का पालन न करना, प्राठों प्रकार के मद धारण करना, तीनों मूढताएं करना और छहों अनायतन पालना, ये पच्चीस दोष कहलाते हैं । इन दोपों के रहते हुए सम्यग्दर्शन कभी नहीं रह सकता । इन दोषों के सिवाय सम्यग्दर्शन के पांच प्रतिचार कहलाते हैं | अतिचार शब्दका अर्थ मल उत्पन्न करना है । ये पांचों अतिचार सम्यग्दर्शन को मलिन करते रहते हैं । इसलिये इनका त्याग करने से ही सम्यग्दर्शन निर्मल रह सकता है । ये पांचों अतिचार इस प्रकार हैं: - पहला अतिचार शंका करना है । भगवान् जिनेन्द्र देवने अनेक सूक्ष्म पदार्थों का भी निरूपण किया है; उनमें किसी प्रकार की शंका करना - 'ये सूक्ष्म पदार्थ हैं या नहीं, यथार्थ हैं या नहीं' इस प्रकार शंका करना भगवान् में भी शंका करना है । इसलिये ऐसो शंका करना सम्यग्दर्शन में मलिनता ला देती है । दूसरा अतिचार कांक्षा है | किसी पदार्थ की इच्छा रखना - चाहना कांक्षा कहलाती है । धर्म - सेवन श्रात्म-कल्याण के लिये किया जाता है। उस धर्मको सेवन करते हुए किसी लौकिक पदार्थकी इच्छा करना उस आत्मकल्याणका घात करना है। इसलिये यह कांक्षा या आकांक्षा सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाला अति वार या दोष कहलाता है । सम्यग्दर्शनका तीसरा अतिचार - विचिकित्सा है। विचिकित्सा का स्वरूप पहले दिखला चुके हैं। मुनियों के मलिन शरीर को देखकर यदि कोई मनुष्य ग्लानि करता है तो समझना चाहिये कि वह उनके गुणों में अनुराग नहीं रखता। उन मुनियों के मुख्य गुण
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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