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________________ जैन-दर्शन -- २१७] और अनंतकाल तक इसी प्रकार बना रहेगा । यह न किसी ने वनाया है और न कोई इसे नाश कर सकता है। अनादि और अनिधन है। कालचक्र यह कालचक्र अनंतकाल से घूमता चला आ रहा है और अनंत काल तक घूमता रहेगा। असंख्यात वर्षों का एक व्यवहारपल्य होता है । असंख्यात पल्यों का एक सागर होता है। ऐसे वीस कोडाकोडी सागरों का एक कल्प काल होता है। इसमें छह काल उलटते पलटते रहते हैं । छहों कालों के नाम ये हैं। सुषमासुषमा-यह चार कोडाकोडी सागर का होता है, इसमें उत्तम भोग भूमि का समय रहता है। मनुष्यों की आयु तीन पल्यकी, और शरीर की ऊंचाई छह हजार धनुष की होती है। इनको खाने पीने पहरने की सब सामग्री कल्प वृक्षों से प्राप्त होती है । कल्पवृक्ष पार्थिव हैं और उनमें समस्त सामग्री देने की शक्ति होती है। यह अवसर्पिणी कालका पहला समय कहलाता है। जिसमें आयु काय शक्ति आदि घटती जाय उसको अवसर्पिणी काल कहते हैं और जिसमें आयु काल आदि बढ़ता जाय उसको उत्सर्पिणी काल कहते हैं । उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी और अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी इस प्रकार दोनों काल बराबर चक्र . लगाया करते हैं।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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