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________________ [१६२ ___ जैन-दर्शन यह कार्य व्यवस्थित रूप से नहीं होता । नदी पर्वत श्रादि पदार्थ पुरन तत्त्व के द्वारा ही उत्पन्न हुए हैं इसलिये वे व्यवस्थित नहीं है। प्रत्येक कार्य के करने में कर्ता के सिवाय अन्य अनेक कारण फलापों की भी आवश्यकता होती है-जैसे घटके बनाने में फुम्हार फर्ता है परंतु चाक मिट्टी, पानी, होरा, दंडा आदि कारणों के मिलने पर ही म्हार घटको बना सकता है, अन्यथा नहीं। इसी प्रकार सर्दी गर्मी वायु जल मिट्टी आदि पुगलों मे ही नदी पर्वत श्रादि पदार्य बनते हैं। यह बात पहले बता चुके हैं कि समस्त पुद्गलों में गमन करने की शक्ति है इसलिये सभी पुद्गल पदार्थों में कर्तृत्व है तथा परस्पर एक दूसरे को साधकत्व भी है। देखो गर्मी अधिक पढने से पानी उठकर भाफ रूह में बदल जाता है, भाफ के बादल घन जाते हैं बादलों में भी अधिक सर्दी पढने से श्रोला बन जाते हैं तथा कहीं कहीं पर बड़े पत्थर के समान ओला वन नाते हैं। अनेक प्रकार की खानों में यहां की मिली ही कारण कलाप मिलने से सोने की खाने में सोना बन जाती है, चांदी की खानि में चांदी बन जाती है, लोहे की खानि में लोहा बन जाती है, पत्थर की खानि में पत्थर बन जाती है और तांबे की खानि में तांबा बन जाती है । जहां जैसे कारण कलाप होते हैं वहां वैसा ही पदार्थ बन जाता है। विजली में चलने की शक्ति है, इसलिये वह ट्रांवे चलाती है. रेलगाडी चालती है और शब्दों को लाखों कोस दूर ले जाती है । परन्तु विजलो में ज्ञान न होने के कारण रेलगाती ट्रांवे श्रादि कहां रुकनी चाहिये यह काम वह नहीं
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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