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________________ १९३) - जैन-दर्शन करती। इस कामको चलाने वाला करता है। वायु में चलने की शक्ति है इसलिये वह भी बादलों को ले ही जाती है । ज्ञान न होने से नहं आवश्यकताके स्थान पर नहीं ले जासकती परन्तु काय करती है। इसी प्रकार कर्म-बंगणा आदि सूक्ष्म पुद्गल भी बहुत काम करते हैं । एक शरीर छूट जाने पर दूसरा शरीर धारण करने के लिये कार्माण वा कर्मों का समूह इस जीव को ले जाता है। पुण्य पाप रूप कर्म अपना सुख दुख रूप फल देते हैं । नाम कमे शरीर तथा शरीर के समस्त अंग उपांग आदि अवयवों को बनाता है। तिर्यंचगति:नाम कर्म सर्दी गर्मी पानी मिट्टी आदि कारण कलापों के मिलने पर घास ना अनेक प्रकार की वनस्पतियों को उत्पन्न करता है, तथा अनेक प्रकार के कोडे मकोडों को उत्पन्न करता है। पानी का उद्गम और पानी का वेग नदी को बना देता है तथा ऊपर को उठने वाली कठोर मिट्टी पर्वत को बना लेती है। कहांतक कहा जायः इस संसार में जितने भी पदार्थ हैं वे सब स्वयं तो अनादि और अनिधन हैं परन्तु उनकी अवस्था-विशेषों को सशरीर जीव और सक्रिय पुद्गल वदला करते हैं । यही क्रम अनादि काल से चला रहा है और अनंत काल तक चलता रहेगा। ..: - यहीं पर इतना और समझ लेना चाहिये कि भारी वजनदार होने से चल नहीं सकते परन्तु जैसे मनों तेल घी कपूर आदि पदार्थ जल जाने पर उड जाते हैं, पत्थरको बहुभाग भी फूक लेने पर उडजाता है उसी प्रकार रूपांतर होने पर हलके हो जाने के कारण समस्त पुद्गल हलन चलन क्रिया कर सकते हैं। अनेक
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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