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________________ १५.८] जेन-दर्शन गति चार, जानि पांच, शरीर पांच, अंगोपांग तीन, निर्माण दो, बंधन पांच, मंघात पांच, संस्थान छह, महनन छ, स्पर्श याठ, रस पांच, गंध दो, वर्ग पांच, प्रानुपूर्वी चार, अतुल घु, उपचात. परघात, पातप, उद्योन. उच्छ्यान, बिहायोति प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, उस, स्थावर, सुभग, दुभंग, शुभ, अशुभ, मुस्वर, दुःस्वर, सूक्ष्म, स्थूल, पर्यातक, अपर्यानक, स्थिर, अन्थिर, प्रादेव. अनादेय, यशःीति, अयशःकीर्ति, तीर्थकर । गति-जिसके उदय से शरीर का प्राकार बने । इसके चार भेद है । नरकगति, तियं चाति, मनुष्यगनि श्र र देवगति । नरकगति-जिसके उदय से शरीर का प्राकार नरकियों का सा हो जाय । तिर्यंचति-जिसके उदय से शरीर का प्राकार तिर्थयों का सा हो जाय। मनुष्यगति-जिसके उदय से शरीर का श्राकार मनुष्यों का सा हो जाय। देवति-जिसके उदय से शरीर का प्राकार देवों का मा हो जाय । ___ जाति-जिसके उदय से किसी रूप से समानता हो। इसके पांच भेद हैं:- एकेन्द्रियजाति, दोइन्द्रियजाति तेइन्द्रियजाति चौइन्द्रियजाति तथा पंचेन्द्रियजाति ।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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