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________________ जैन-दर्शन १३६ ] दर्शन होता है । अन्तराय कर्म के अत्यन्त ज्ञय से अनन्तदान अनन्त लाभ अनन्त भोग अनन्त उपभोग और अनन्त वीर्य प्रकट होता है और मोहनीय कर्म के अत्यन्त क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र प्रकट होता है। जो भाव कर्मों के उदय से प्राप्त होते हैं उनको औयिक भाव कहते हैं । ऐसे भाव इकईस है । गति चार, कपाय चार, लिंग तीन, मिथ्यादर्शन एक, अज्ञान एक, असंयत एक, असिद्ध एक, लेश्या छह । मनुष्य गति नाम कर्म के उदय से मनुष्य गति के भाव होते हैं । तिर्यंचगति नाम कर्म के उदय से तिर्यच गति के भाव होते हैं । नरक गति नाम कर्म के उदय से नारक रूप भाव होते हैं और देव गांत नाम कर्म के उदय से देव रूप भाव होते हैं। क्रोध मान माया लोभ ये चार कपाय हैं। ये चारों कपाय चारित्र मोहनीय के भेद रूप चारों कपायों के उदय से होते हैं । स्त्रीलिंग, पुरुपलिंग और नपुंसकलिंग के भाव मोहनीय कर्म के नो कषाय रूप बीपुन्नपुंसकलिंग के उदय से होते हैं । मिथ्यात्व कर्म के उदय से मिथ्यादर्शन रूप भाव होते हैं । ज्ञानावरण कर्म के उदय से श्राज्ञान होता है और चारित्र मोहनीय के उदय से असंयत भाव होता है । लेम्या छह हैं । कृष्ण नील कापोत पीत पद्म शुक्ल । कपाय सहित योगों की प्रवृत्ति को लेश्या कहते हैं । मन वचन कायकी क्रिया को योग कहते हैं । उन्हीं क्रियाओं में यदि कपाय मिली हो तो उनको लेश्या कहते हैं । तीव्र कपाय के उदय से जो योग प्रवृत्ति होती है वह कृष्ण लेश्या है वह नरक का कारण है । इसी प्रकार जैसी जैसी कषायें कम
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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