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________________ [ १३४ जेन-दर्शन दूसरे को दुःख पहुँचाया करते हैं। वहां पर एक क्षण भी सुख से व्यतीत नहीं होता । उन नारकियों के शरीर काले होते हैं, वे नपुंसक होते हैं, उनका शरीर वैक्रियक होता है जो खंड खंड होकर पारे के समान मिलकर वन जाता है । उनकी आयु सागरों की अर्थात असंख्यात वर्षो की होती है और अपनी आयु पूर्ण होने पर ही उनकी वह पर्याय छूटती है । अत्यन्त तीव्र हिंसा आदि पापकरने से जीव नरक में उत्पन्न होते हैं । पशु पक्षी कीड़े मकोडे स्थावर आदि सब जीव तिव गति के जीव कहलाते हैं । तिर्यंच गति में भी महा दुःख हैं । जो जीव मनुष्य योनि में जन्म लेते हैं वे मनुष्य गति के जीव कहलाते हैं । अधिक पाप और कम पुण्य करने से मायाचारी करने से ये जीव : तिर्यच गति में उत्पन्न होते हैं। अधिक पुण्य कम पुण्य वा संतोष शील आदि धारण करने से यह जीव मनुष्य गति में जन्म लेता है, तथा अधिक पुण्य से देव होते हैं । देव चार प्रकार के हैं । इस पृथ्वी के नीचे भवनवासी देव रहते ' हैं । उनके बहुत सुन्दर मीलों लंबे चौड़े भवन बने हुए हैं। प्रत्येक भवन में एक एक जिन मंदिर है । इस पृथ्वी पर व्यंतर देव रहते हैं | ऊपर जो सूर्य चन्द्रमा गृह नक्षत्र तारे यादि दिखाई पडते हैं वे ' सब ज्योतिषी देवों के विमान हैं उनमें ज्योतिपी देव रहते है । उनसे बहुत ऊंचे स्वर्ग के विमान हैं उनमें वैमानिक देव रहते हैं । ' वैमानिक देवों के अनेक भेद हैं और वे सब देवों से अधिक 1
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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