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________________ जैन-दर्शन १३३ में अग्निकायिक, और वायु में वायुकायिक जीव रहते हैं । वृक्ष पौधे आदि सब वनस्पतिकायिक हैं । इन सबके एक ही स्पर्शन इन्द्रिय होती है। जूलट गिडोरा श्रादि दो इन्द्रिय जीव हैं इनके स्पर्शन रसना दो इन्द्रियां होती हैं, नाक आंख कान नहीं होते । चोंटा चींटी. खटमल बिच्छू आदि ते इन्द्रिय जीव हैं इनके स्पर्शन रसना प्राण ये तीन इन्द्रियां होती हैं आंख, और कान नहीं होते । मक्खी - भोरा, मच्छर, ततैया पतंगा आदि चौ इन्द्रिय जीव हैं इनके कान नहीं होते । गाय भैंस कबूतर मनुष्य आदि सब पंचेन्द्रिय जीव हैं। ये सब संसारी जीव चार गतियों में जन्म मरण करते हुए परिभ्रमण करते रहते हैं। नरकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति ये चार गतियां हैं । इस पृथ्वी के नीचे सात नरक हैं उन नरकों में नारकियों के उत्पन्न होने और रहने के अनेक स्थान हैं । उन्हीं में ये नारकी रहते हैं। उन नरकों से ऊपर के श्राधे से अधिक स्थान इतने गर्म हैं कि यदि उनमें मेरु पर्वत के समान लोहा डाल दिया जाय तो जाते ही गल जाय तथा शेष नीचे के स्थान इतने ठंडे हैं कि यदि उनमें मेरु पर्वत के समान गला हुआ लोहा डाल दिया तो जाते ही जम जाय । वहां के वृक्ष पत्ते तलवार जैसपने होते हैं, वहां के समस्त स्थान इतने दुर्गेधमय हैं कि यदि वहां की थोडी सी मिट्टी भी यहां आजाय तो उसकी दुर्गंध से सैकड़ों कोसों के जीव मर जाय । ऐसे महा दुःखमय स्थान में वे नारकी रहते हैं। वहां पर वे नारकी परस्पर एक
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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