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________________ जैन-दर्शन . १२२ तथा जो किसी कालकी.मर्यादा लेकर त्याग किया जाता है उसको नियम कहते हैं। भोजन, शय्या; सवारी, स्नान, वंटन, पुप्प, तांबूल, वस्त्र, आभूपणं, काम-सेवन, गीत, संगीत आदि पदार्थों को नियम रूपसे एक दिन दो दिन चार दिन महीना आदि के लिये त्याग करते रहना चाहिये । इन्द्रियों के विषयों की उपेक्षा न करना, • अधिक लोलुपता रखना. अधिक तृष्णा रखना; विषयों को वार बार स्मरण करना और उनका अनुभव करना' इस व्रत के दोष हैं। व्रती श्रावकों को इन दोपों का त्याग भी अवश्य कर देना चाहिये। अतिथि-संविभागव्रत-जिनके आने की कोई तिथि नियत न हो ऐसे मुनियों को अतिथि कहते हैं। अपने लिये बनाये आहार में से मुनियोंको दोन देना अतिथि-संविभागवत है। इसको वैयावृत्य भी कहते हैं। मुनियों को दान देने की विधि पीछे लिखी जा चुकी है उसके अनुसार मुनियों को आहार दान देना अतिथि-संविभागवत है। जिस दिन अतिथि वा कोई धर्मपात्र न मिले तो उस दिन एक किसी रसका त्यागकर देना चाहिये। श्रावकोंको करुणादान भी देना चाहिये । दुखी लोगोंका दुःख दूर करना, भूखों को खिलाना आदि सव करुणादान है। भगवान् ‘पंच परमेष्ठी की पूजा करना भी इसी वैयावृत्यं व्रत के अंतर्गत है। "इसलिये वह तो प्रत्येक श्रावक को प्रतिदिन करनी चाहिये । चाहे वह जिनालय में जाकर करे या अपने चैत्यालय में ही करे, परंतु भगवान की पूजा प्रति दिन करनी चाहिये। यह अतिथि-संविभाग व्रत मुनियों के न मिलने पर भी प्रति दिन पल सकता है।
SR No.010212
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherMallisagar Digambar Jain Granthmala Nandgaon
Publication Year
Total Pages287
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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